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________________ ३४ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा एकान्तरूप से नहीं मानता है। उसके अनुसार संसारी आत्मा पूर्व कर्मों के निमित्त से अच्छे-बुरे भाव करती है। अतः वह उन भावों की कर्ता है। उन भावों के निमित्त से जो कर्मबन्ध होता है, उसे उसकी भी कर्ता और भोक्ता कहा गया है। किन्तु कुन्दकुन्दाचार्य ने आत्मा को पर-पदार्थों की कर्ता मानने वालों को मिथ्यादृष्टि, अज्ञानी या मोही कहा है। समयसार में वे कहते हैं कि “जो यह मानता है कि मैं दूसरे जीवों को मारता हूँ और परजीव मुझे मारते हैं, वह मूढ़ है, अज्ञानी है। जो यह मानता है कि मैं अपने द्वारा दूसरे जीवों को दुःखी या सुखी करता हूँ, वह भी अज्ञानी व मूढ़ है। ज्ञानी इसके विपरीत है। संसार के सभी जीव अपने कर्मोदय के द्वारा ही सुखी-दुःखी होते हैं।"१०३ ___अमृतचन्द्रसूरि ने भी समयसार की आत्मख्याति टीका०४ में यही कहा है। आत्मा ज्ञानस्वरूप है, वह ज्ञान से भिन्न नहीं है। अपने ज्ञाता-द्रष्टा भाव के अतिरिक्त वह पुद्गलरूप कर्मों की कर्ता नहीं है। व्यवहारी जीवों का ऐसा मानना मोह है।०५ अज्ञानी जीव ही आत्मा को पौद्गलिक कर्मों की कर्ता मानते हैं। मोक्ष की अभीप्सा होते हुए भी ऐसे लोगों को मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती।०६ आत्मा पुद्गलद्रव्यरूप कर्मों की कर्ता भोक्ता नहीं हो सकती; क्योंकि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता-भोक्ता नहीं हो सकता। पंचाध्यायीकार ने भी कहा है कि मिथ्यादृष्टि एवं निकृष्ट बुद्धिवालों की ही यह मान्यता हो सकती है कि जीव अन्य द्रव्यों का कर्ता-भोक्ता है। आत्मा को पर-पदार्थों का कर्ता माननेवालों को कुन्दकुन्दाचार्य ने जैन सिद्धान्तों से अनभिज्ञ एवं मिथ्यादृष्टि कहा है। यह अवधारणा निश्चयनय पर आधारित है।०७ १०३ समयसार २४७-५८ । १०४ समयसार आत्मख्याति टीका गा. ७६ कलश ५० । १०५ समयसार आत्मख्याति टीका गा. ६७ कलश ६२ । १०६ वही टीका गा. ३२० कलश १६६ । १०७ (क) पंचाध्यायी, पूर्वार्ध श्लोक ५८०-८१; (ख) योगसार (अमितगति) ४/१३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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