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________________ १८ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा ज्ञाता-द्रष्टा स्वभाववाली है।३ आचार्य अमृतचन्द्र ने भी कहा है कि विचार की विधाओं से रहित निर्विकल्प, स्वस्वभाव में स्थित, जो आत्मा (समयसार) है, वही अप्रमत्त पुरुषों के द्वारा अनुभूत है, वही विज्ञान है, वही पवित्र पुराण पुरुष है। उसे ज्ञाता, द्रष्टा आदि अनेक नामों से जाना जाता है। ___चैतन्यतत्त्व के साथ-साथ आत्मा विवेकशील तत्त्व भी है। किसी चैतन्य सत्ता के द्वारा ही चिन्तन, मनन और शुभाशुभ का विवेक होता है। आत्मा के बिना शुभाशुभ का विवेक सम्भव नहीं है। वस्तुतः जिसमें विवेकपूर्वक आदर्श का अनुसरण करने की क्षमता है उसे ही आत्मा कहा जाता है। आत्मा के स्वरूप को लेकर विभिन्न दार्शनिकों की विभिन्न मान्यताएँ हैं। योगीन्दुदेव ने ‘परमात्मप्रकाश' में इन सभी मान्यताओं का निर्देश करते हुए उनका भी समन्वय किया है। वे लिखते हैं कि कई दार्शनिक अर्थात् नैयायिक, वेदान्ती और मीमांसक आत्मा को सर्वगत कहते हैं। चार्वाक आदि कुछ दार्शनिक आत्मा को जड़ कहते हैं। कई दार्शनिक उसे शून्य कहते हैं। योगीन्दुदेव की दृष्टि में ये सभी अवधारणाएँ अपेक्षा-विशेष पर आधारित हैं। यह आत्मा कर्म विवर्जित होकर अपने केवलज्ञान स्वभाव से लोक और अलोक सभी को जानती है। इस अपेक्षा से यह आत्मा सर्वगत है, ऐसा कहा जाता है। केवलज्ञान के उत्पन्न होने पर इन्द्रियजन्य ज्ञान नाश को प्राप्त हो जाते हैं। इन्द्रियजन्य ज्ञान के अभाव की अपेक्षा से आत्मा को जड़ भी कहा जा सकता है। निर्विकल्प अवस्था के अन्दर आत्मा में कोई भी विकल्प शेष नहीं रहता है। वह सर्व दोषों से रहित होती है। इसलिए उसे शून्य भी कहा जा सकता है। कर्मों के कारण देह में स्थित होने से आत्मा को देह-परिमाण भी कहा गया है। इस प्रकार आत्मा के सम्बन्ध में विभिन्न दर्शनों की जो अवधारणाएँ हैं; उन्हें सापेक्षिक रूप से ही सत्य कहा जा ४३ 'समयसार', १८ । ४४ 'समयसारटीका', १५ पृ. ४१ । ४५ 'कि वि भणंति जिउ सव्वगउ जिउ जड़ के वि भणंति । कि वि भणंति जिउ देह-समु सुण्णु वि के वि भणंति ।। ५० ।।' -परमात्मप्रकाश । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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