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________________ ३६८ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा अयोगी केवली कहा जाता है।०४ वे योगरहित केवली परमात्मा अयोगीकेवली जिन कहलाते हैं। गोम्मटसार (जीवकाण्ड) की मन्दप्रबोधिनी टीका तथा केशववर्णी की जीवप्रबोधिनी टीका में भी इसकी जो चर्चा उपलब्ध होती हैं,०५ वह इस प्रकार है कि तेरहवें गुणस्थान में घातीकर्मों का अभाव रहता है और अघातीकर्मों का क्षय होता है। इस अयोगीकेवली गुणस्थान में आत्मा का स्वाभाविक स्वरूप चमकने लगता है। गोम्मटसार में कहा गया है कि इस १४वें गुणस्थानवर्ती साधक के कर्मों के आगमन का आश्रवरुपी द्वार पूर्णतः निरूद्ध हो जाता है एवं जिनके समस्त कर्मों की निर्जरा हो चुकी है, ऐसी अयोगदशा इस अयोगीकेवली गुणस्थान की होती है।०६ इस गुणस्थानवर्ती आत्मा परमात्मा कही जाती है। ।। षष्टम अध्याय समाप्त।। १०४ 'न विद्यते योगो यस्य स भवत्ययोगः केवलमयातीति केवली । ___ अयोगश्च सो केवली च अयोगी केवली ।। -धवला १/१/१ सूत्र २२ पृ. १६२ । १०५ (क) गोम्मटसार जीवकाण्ड) मन्दप्रबोधनी टीका गा. ६५ । (ख) वही जीवप्रबोधनी टीका ११, १० । १०६ ‘सीलेसिं संपत्तो निरूद्धणिस्सेसआसओ जीवो । कम्मरयविप्पमुक्को गयजोगो केवली होदि ।। ६५ ।।' -गोम्मटसार (जीवकाण्ड)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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