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________________ ३७८ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा परमात्मा की सूचक है; क्योंकि वह आध्यात्मिक विकास का अन्तिम चरण है। आचारांगनियुक्ति और तत्त्वार्थसूत्र में जिन दस अवस्थाओं का उल्लेख मिलता है, उनके नाम इस प्रकार हैं : (१) सम्यग्दृष्टि; (२) श्रावक (३) विरत; (४) अनन्तवियोजक; (५) दर्शनमोहक्षपक; (६) उपशमक; (७) उपशान्तमोह; (८) क्षपक; (६) क्षीणमोह; और (१०) जिन। (१) सम्यग्दृष्टि : इस अवस्था में मिथ्यात्व दूर होकर सम्यक्त्व का आविर्भाव होता है। . (२) श्रावक : इसमें अप्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षयोपशम से अल्पांश में विरति (त्याग) प्रकट होता है। विरत : इसमें प्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षयोपशम सर्वांश में विरति प्रकट होती है। अनन्तवियोजक : इसमें अनन्तानुबन्धी कषाय का क्षय करने योग्य विशुद्धि प्रकट होती है। दर्शनमोहक्षपक : इसमें दर्शनमोह का क्षय करने योग्य विशुद्धि प्रकट होती है। (६) उपशमक : इस अवस्था में मोह की शेष प्रकृतियों का उपशम जारी रहता है। (७) उपशान्तमोह : इसमें उपशम पूर्ण हो जाता रहता है। (८) क्षपक : जिसमें मोह की शेष प्रकृतियों का क्षय जारी रहता है। (E) क्षीणमोह : इसमें मोह का क्षय पूर्ण सिद्ध हो जाता है। (१०) जिन : इसमें सर्वज्ञता प्रकट हो जाती है। इन दस अवस्थाओं का स्वरूप मोक्षाभिमुखता सम्यग्दृष्टि की प्राप्ति से ही प्रारम्भ हो जाता है। कर्मबन्धनों का सर्वथा क्षय ही मोक्ष है एवं कर्मों का अंशतः क्षय निर्जरा है। निर्जरा मोक्ष का पूर्वगामी अंग है। यहाँ विशिष्ट आत्माओं की ही कर्मनिर्जरा के क्रम का विचार किया गया है। वे विशिष्ट मोक्षाभिमुख आत्माएँ हैं। मोक्षाभिमुखता सम्यग्दृष्टि की " (क) आचारांगनियुक्ति २२-२३; (ख) तत्त्वार्थसूत्र ६/४७; (ग) षङ्खण्डागम, कृतिअनुयोगद्वार, वेदना खण्ड चूलिका गाथा ७-८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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