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________________ ३५४ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा आत्मबुद्धि एवं आत्मा में अनात्मबुद्धि रूप अज्ञानता समाप्त हो जाती है, तब मोक्ष या सिद्धावस्था उपलब्ध होती है। आचारांगसूत्र के अनुसार सिद्धों का स्वरूप : आचारांगसूत्र में सिद्धात्मा के स्वरूप का संक्षिप्त विवरण उपलब्ध होता है। उसमें बताया गया है कि मोक्ष-मार्ग पर आरूढ़ श्रमण, गति-अगति रूप भवभ्रमण के चक्र को समाप्त कर सिद्धावस्था को प्राप्त कर लेता है।४ सिद्ध का स्वरूप : औपपातिकसूत्र में सिद्ध के स्वरूप का विवेचन करते हुए बताया गया है कि सिद्ध परमात्मा लोक के अग्र भाग में शाश्वतकाल तक अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित रहते हैं। सिद्धात्मा आदि अनन्त है; क्योंकि सिद्धावस्था काल विशेष पर उपलब्ध होती है, अतः उसका आदि या प्रारम्भ है किन्तु उस अवस्था का अन्त नहीं होता है - अतः वह अनन्त है। सिद्ध परमात्मा सघन अवगाढ-आत्मप्रदेश से युक्त होते हैं। वे अनन्त ज्ञान-दर्शन से सम्पन्न होते हैं। वे कृत्य-कृत्य हैं क्योंकि जिन्होंने अपने सम्पूर्ण प्रयोजन सिद्ध कर लिये हैं। वे अचल या निश्छल होते हैं। अष्टकर्मों का क्षय हो जाने से वे सिद्ध परमात्मा अत्यन्त विशुद्ध होते हैं। वे ज्ञान-दर्शन रूप पर्यायों की अपेक्षा से उत्पाद्-व्यय युक्त भी हैं। उत्तराध्ययनसूत्र की अपेक्षा से सिद्ध परमात्मा सम्पूर्ण कर्ममल से रहित होते हैं।८६ जिन जीवों ने मोक्ष की प्राप्ति कर ली है; वे सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, सर्व दुःखों से रहित, निसंग, निरंजन, निराकार, परब्रह्म, परम ज्योति, शुद्धात्मा और परमात्म ज्योतिस्वरूप हैं।८७ १८३ अभिधानचिन्तामणि पृ. १३६ । आचारांगसूत्र प्रथम प्रथम श्रुतस्कंध, पंचम ६, सूत्र १७६ । (क) औपपातिकसूत्र, सूत्र १२४ पृ. १७३ । (ख) बृहद्रव्य संग्रह १४ । १८६ 'सिद्धे हवइ नीरए' उत्तराध्यययनसूत्र १८/५४ । (क) उत्तराध्ययनसूत्र ६/५८ । (ख) वही २८/३६ । (ग) वही २६/६ । १८७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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