SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 396
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परमात्मा का स्वरूप लक्षण, और प्रकार ३४५ १७. समताभाव रखना; १८. ज्ञान-शक्ति को निरन्तर बढ़ाते रहना; १६. आगमों में श्रद्धा करना; और २०. जिन प्रवचन का प्रकाश करना। ज्ञातव्य है कि इन सोलह या बीस बोलों में से किसी एक की, कुछ की अथवा सभी की साधना करके जीव तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन कर लेता है। ५.५ तीर्थकर, बुद्ध और अवतार : तुलनात्मक विवेचन भारतीय धर्मों में परमात्मा की अवधारणा विभिन्न रूपों में मिलती है। हिन्दू परम्परा में उसे ईश्वर या ईश्वर के अवतार के रूप में माना गया है। बौद्ध परम्परा उसे बुद्ध एवं बोधिसत्व के रूप में स्वीकार करती है, तो जैन परम्परा उसे तीर्थकर, अरिहन्त या सिद्ध के रूप में स्वीकार करती है। यद्यपि इनके स्वरूप को लेकर तीनों परम्पराओं में मतभेद है; फिर भी तीनों परम्पराएँ उन्हें धर्म के संस्थापक के रूप में स्वीकार करती हैं और इसी उद्देश्य को लेकर हिन्दू परम्परा में २४ अवतारों, बौद्ध परम्परा में २४ बुद्धों और जैन परम्परा में २४ तीर्थंकरों की अवधारणाएँ हमें मिलती हैं। २४ अवतार, २४ बुद्ध और २४ तीर्थंकरों की इस अवधारणा का विकास कब और किस रूप में हुआ तथा इसे किसने किससे ग्रहण किया; यह एक विवादात्मक प्रश्न है, क्योंकि प्रत्येक परम्परा की अपनी-अपनी मान्यताएँ हैं। प्रस्तुत विवेचन में हमारा मुख्य प्रयोजन इन अवधारणाओं का तुलनात्मक विवरण प्रस्तुत करना है। तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर हम यह पाते हैं कि जैन और बौद्ध परम्पराओं में उपास्य के रूप में तीर्थकर या बुद्ध की अवधारणा मौजूद है। हिन्दू धर्म भी उपास्य के रूप में ईश्वर को स्वीकार करता है। किन्तु जहाँ हिन्दू धर्म ईश्वर को सृष्टि का कर्ता या रचयिता, संरक्षक और संहारक मानता है; वहाँ जैन और बौद्ध - दोनों ही दर्शन ईश्वर को सृष्टि-कर्ता के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं। परवर्ती काल में भी जैनाचार्यों ने ईश्वर को सृष्टि का कर्ता मानने की अवधारणा का बहुत खण्डन किया है। मात्र यही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy