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________________ ३२४ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा निमग्न रहते हैं।१२७ वे परमात्मा निर्भय, आनन्दमय, सर्वोत्कृष्ट ज्ञानरूप हैं। उनके ज्ञानरूप प्रकाश में त्रैलोक्य प्रकाशित होता है। उनकी महिमा निराली है। वे देहातीत हैं; परिग्रह से रहित हैं और ज्ञानस्वरूप चैतन्यपिण्ड और अविनाशी होते हैं।२८ परमात्मा का निर्मल पूर्ण ज्ञान आगामी अनन्तकाल तक ऐसा ही रहेगा।२६ उन परमात्मा की आत्मा शुद्ध आत्मा में स्थिर रहकर आत्मीय आनन्द १२७ 'जो पूरवकृतकरम विरख विष-फल नहीं भुंजै । जोग जुगति कारिज करंति, ममता न प्रयुंजै ।। राग विरोध निरोधि, संग विकलप सब छंडइ। सुद्धातम अनुभौ अभ्यासि, सिव नाटक मंडइ ।। जो ग्यानवंत इहि मग चलत, पूरन है केवल लहै । सो परम अतीन्द्रिय सुख विषै, मगन रूप संतत रहै ।। १०६ ।।' -वही। १२८ 'निरभै निराकुल निगम वेद निरभेद, जाके परगासमैं जगत माइयतु है। रूप रस गंध फास पुद्गल कौ विलास, . तासौ उद्वास जाकौ जस गाइयतु है ।। विग्रहसौ विरत परिग्रहसौ न्यारौ सदा, जामैं जोग निग्रह चिह्न पाइयतु है। सो हे ग्यान परवान चेतन निधान ताहि,अविनासी ईसजानि सीस नाइयतु है।। १०७।।' -वही । १२६ (क) 'जैसो निरभेदरूप निहचै अतीत हुतौ, तैसौ निरभेद अब भेद कौन कहैगो । दीसै कर्म रहित सहित सुख समाधान, पायौ निजस्थान फिर बाहरि न बहैगो ।। कबहूं कदाचि अपनौ सभाव त्यागि करि, राग रस राचि मैं न पर वस्तु गहेगौ अमलान ग्यान विद्यमान परगट भयौ, याही भांति आगम अनन्त काल रहैगो ।। १०८ ।।' -वही ! (ख) 'जो पूरवकृत करमफल, रूचि सौं भुंजै नांहि । मगन रहै आठौं पहर, सुद्धातम पद मांहि ।। १०४ ।।' (ग) 'सो बुध करमदसा रहित पावै मोख तुरंत । भुंजै परम समाधि सुख, आगम काल अनन्त ।। १०५ ।।' -वही । -वही । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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