SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 357
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०६ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा केवलज्ञान एवं केवलदर्शन स्वरूप है। इस चर्चा से यह स्पष्ट हो जाता है कि योगीन्दुदेव के अनुसार आत्मा और परमात्मा में अभेद है। आत्मा के निरावरण शुद्धस्वरूप में परमात्मा ही है।६° उन परमात्मा के लिये शत्रु-मित्र आदि सभी एक समान हैं। उनका न किसी से राग है और न द्वेष है। वे वीतराग हैं, वे समभाव में जीते हैं, समता में रमण करते हैं तथा निर्विकल्प समाधि में स्थित रहते हैं। कषाय-कल्मष के दूर हो जाने के कारण वे परमानन्द में स्फूरायमान है। वस्तुतः देहात्म बुद्धि से रहित संसार से पराङ्मुख तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र रूप आत्मा को ही उसके अपने शुद्ध स्वरूप में परमात्मा कहा जाता है।६२ योगीन्दुदेव के अनुसार यद्यपि अनादिकाल से यह आत्मा कर्म और तद्जन्य शरीरादि उपाधियों से युक्त है, किन्तु निश्चय से ५६ (क) 'जीवहँ दंसणु णाणु जिय लक्खणु जाणइ जो जि । देह-विभेएं भेउ तहँ णाणि कि मण्णइ सो जि ।। १०१ ।। -परमात्मप्रकाश २ । (ख) 'देह विभेयई जी कुणइ जीवइँ भेउ विचित्तु । सो णवि लक्खणु मुणइ तसँ दंसणु णाणु चरित्तु ।। १०२ ।।' -वही । (ग) 'सयल वियप्पहँ तुट्टाहं सिव पय मग्गि वसंतु । कम्म चउक्कइ विलउ गइ अप्पा हुइ अरहंतु ।। १६५ ।।' -वही । 'जामु सुहासुह-भावडा णवि सयल वि तुटंति । परम समाहि ण तामु मणि केवुलि एमु भणंति ।। १६४ ।।' -वही। 'केवल-णाणिं अणवरउ लोयालोउ मुणंतु । णियमें परमाणंदमउ अप्पा हुइ अरहन्तु ।। १६६ ।।' -वही । 'जो जिणु केवल-णाणमउ परमाणंद सहाउ । सो परमप्पउ परम-परू सो जिय अप्प-सहाउ ।। १६७ ।।' -वही । (ज) 'केवल-दसणु णाणु सुह वीरिउ जो जि अणंतु ।। सो जिण-देउ वि परम-मुणि परम-पयासु मुणंतु ।। १६६ ।।' -वही। ६० 'णाण-वियक्खणु सुद्ध मणु जो जणु एहउ कोइ । ___सो परमप्प-पयासयहं जोग्गु भणंति जि जोइ ।। २०६ ।।' -वही । ६१ 'जो सम-भाव-परिट्ठियहं जोइहं कोइ फुरेइ । परमाणंदु जणंतु फुडु सो परमप्पु हवेइ ।। ३५ ।।' -वही १ । ६२ (क) 'जं तत्तं णाण-रूवं परम-मणि-गणा णिच्च झायंति चित्ते । जं तत्तं देह-चत्तंणिवसइ भुवणे सब-देहीण देहे ।। जं तत्तं दिव्व-देहं तिहुवण-गुरूगं सिज्झए संत-जीवे ।। तं तत्तं जस्स सुद्धं फुरइ णिय-मणे पावए सो हि सिद्धिं ।। २१३ ।।' -वही। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy