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________________ २८४ ११. भिक्षाचारी मुनि की भिक्षाचारी के सम्बन्ध में उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है : उसे गवेषणा, ग्रहणेषणा तथा परिभोगेषणा का पालन करना चाहिये। इसमें गवेषणा के अन्तर्गत उद्गम के १६ और उत्पादन के १६ तथा ग्रहेषणा के अन्तर्गत एषणा के १० और परिभोगेषणा के ५ दोष होते हैं। ये मूल ४७ दोष निम्न हैं : २२२ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा उद्गम के दोष १. आधाकर्म; २. औद्देशिक; ३. पूतिकर्म; स्थापनाकर्म; ६. प्राभृत; ७. प्रादुष्कण; ८. क्रीत; परावर्त; ११. अभिहृत; १२. उद्भिन्न; १३. मालापहृत; १४. आच्छेद्य; १५. अनिसृष्ट; और १६. अध्वपूरक । ४. मिश्रजात; ५. ६. प्रामिला; १०. उत्पादन के दोष : १. धात्री; २. दूती; ३. निमित्त; ४. आजीविका; ५. वनीपक; ६. चिकित्सा; ७. क्रोधपिण्ड; ८. मानपिण्ड; ६. मायापिण्ड; १०. लोभपिण्ड; ११. संस्तव; १२. विद्या; १३. मन्त्र; १४. चूर्ण; १५. योगपिण्ड; और १६. मूलदोष । १. शंकित; २. भ्रमित; ६. दायक; ७. उन्मिष; २२२ एषणा के दोष ३. निक्षिप्त; ४. पिहित; ५. ८. अपरिगत; ६. लिप्त; और १० परिभोगेषणा के दोष १. संयोजना; २. अप्रमाण; ३. अंगार; ४. धूम; और ५. अकारण । १२. सचेल - अचेल दिगम्बर परम्परानुसार अचेल (निर्वस्त्र) ही मुनिपद का अधिकारी है। श्वेताम्बर परम्परानुसार अचेल और सचेल दोनों ही मुनिपद एवं मोक्ष के अधिकारी हैं । यापनीय परम्परानुसार मुनि की अचेलता श्रेष्ठ मार्ग है सचेलता अपवाद मार्ग है, मूलमार्ग Jain Education International वही टीका पत्र ७२६- ३४ (लक्ष्मीवल्लभगणि) । संह्यत; छर्दित । For Private & Personal Use Only ― www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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