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________________ अन्तरात्मा का स्वरूप, लक्षण और प्रकार २६७ तो वह उस्तरे से केश उतार सकता है। इस प्रकार गृहस्थ (साधक) क्रमशः इन ११ प्रतिमाओं का पालन करता हुआ आध्यात्मिक विकास करता है। अन्त में अन्तरात्मा की दशा को प्राप्त कर परमात्मदशा को उपलब्ध करने के लिए श्रमण जीवन के निकट पहुँच जाता है। ४.३.३ सर्वविरत अन्तरात्मा मध्यम-मध्यम अन्तरात्मा किसे कहते हैं? मध्यम अन्तरात्मा का दूसरा विभाग मध्यम-मध्यम अन्तरात्मा है। इस वर्ग के अन्तर्गत सर्वविरत मुनिवर्ग को समाहित किया जाता है। गुणस्थान सिद्धान्त की अपेक्षा से सर्वविरत के दो विभाग किये जाते हैं : १. प्रमत्तसंयत; और २. अप्रमत्तंयत। सर्वविरत मुनि इन दोनों अवस्थाओं में संक्रमण करता रहता है। वह सर्वकाल स्थायी रूप से किसी एक अवस्था में नहीं रहता है। आत्माभिमुख होकर कभी अप्रमत्तदशा में रहता है, तो कभी देहादिभाव जाग्रत होने पर प्रमत्त अवस्था में आ जाता है। कोई भी सर्वविरत जीवनपर्यन्त न तो सर्वथा अप्रमत्त रह पाता है और न सर्वथा प्रमत्त ही रहता है। इसी कारण दोनों ही गुणस्थानवर्ती मुनि मध्यम-मध्यम अन्तरात्मा के वर्ग में ही समाहित किये जाते हैं। इस अवस्था में मुनि-जीवन के आवश्यक कर्तव्यों में पंचमहाव्रतों, पंच समितियों और तीन गुप्तियों का पालन अनिवार्य है। मुनि के पंच महाव्रत निम्न हैं : १. अहिंसा महाव्रत; २. सत्य महाव्रत; ३. अचौर्य महाव्रत; ४. ब्रह्मचर्य महाव्रत; और ५. अपरिग्रह महाव्रत। इन पंच महाव्रतों की साधना निम्न नवकोटियों सहित की जाती है : १. मनसा-अकृत; २. मनसा-अकारित; ३. मनसा-अनुमोदित; ४. वचसा-अकृत; ५. वचसा-अकारित; ६. वचसा-अनुमोदित; ७. कायसा-अकृत; ८. कायसा-अकारित; तथा ६. कायसा-अनुमोदित। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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