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________________ २२८ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा लेता है। उनकी दृष्टि में अन्तरात्मा वही है जो अपने चित्त को शुद्ध आत्मतत्त्व में निवेशित करती है। ऐसी आत्मा अपने समस्त कर्मों को उसी प्रकार भस्म कर देती है, जिस प्रकार लकड़ी के पहाड़ को अग्नि की एक चिणगारी। उनके अनुसार जिसका मन परमपद अर्थात् परमात्मपद में निवेशित है, वह निश्चय ही शुद्ध आत्मस्वरूप का अवलोकन कर परम आनन्द की प्राप्ति करता है। इस प्रकार योगीन्दुदेव ने निर्मल मन से शुद्ध आत्मतत्त्व की उपासना को ही सम्यक् उपासना या साधना कहा है। अन्तरात्मा इसी साधना के द्वारा परमात्मपद को प्राप्त करती है।६६ (ख) योगसार में आत्मा का स्वरूप योगीन्दुदेव ने योगसार में अन्तरात्मा के लिए पण्डित आत्मा शब्द का प्रयोग किया है। वे कहते हैं कि जो आत्मा के शुद्ध स्वरूप को जानता है, वह 'पर' के ऊपर रही हुई ममत्वबुद्धि का त्याग करता है; वह पण्डित आत्मा या अन्तरात्मा है।" अन्तरात्मा यह मानती है कि देहादि जो पदार्थ हैं, वे मेरे नहीं हैं। योगीन्दुदेव की दृष्टि में आत्मानुभूति का प्रयत्न ही अन्तरात्मा का प्रमुख लक्ष्य होता है। वे लिखते हैं कि परम आत्मतत्व का दर्शन ही मोक्ष का कारण है, क्योंकि समस्त धर्मक्रियाओं को करते हुए भी यदि आत्मतत्त्व का बोध नहीं होगा, तो संसार का परिभ्रमण भी समाप्त नहीं होगा। वे स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि व्रत, तप, संयम और मुनि-जीवन के मूल गुणों के पालन से जब तक परम शुद्ध आत्मतत्त्व का बोध नहीं होता, तब तक ये मोक्ष के साधन नहीं बनते। वे लिखते हैं कि एक आत्मा ही चेतन तत्त्व है - शेष सभी अचेतन हैं। उस आत्मतत्त्व को जानकर ही मुक्ति को प्राप्त किया जा सकता है। वे लिखते हैं कि यदि तू सर्व बाह्य व्यवहार का ६६ -वही । 'मेल्लिवि सयल अवक्खडी जिय णिचिंतउ होइ । चित्तु णिवेसहि परमपए देउ णिरंजणु जोइ ।। ११५ ।।' 'तिपयारो अप्पा मुणहि परू अंतरू बहिरप्पु । पर सायहि अंतर-सहिउ बाहिरू चयहि णिमंतु ।। ६ ।।' 'जो परियाणइ अप्पु परू जो परभाव चएइ । सो पंडिउ अप्पा मुणहु सो संसारू मुएइ ।। ८ ।।' -योगसार । -योगसार । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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