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________________ अध्याय ४ अन्तरात्मा का स्वरूप, लक्षण और प्रकार ४.१ अन्तरात्मा का स्वरूप एवं लक्षण जैन दार्शनिकों के अनुसार अन्तरात्मा मिथ्यात्व का परित्याग कर जब सम्यक्त्व की अनुभूति करती है तब वह शरीरादि बाह्य पदार्थों में आसक्त न होकर अथवा संसार में रहते हुए भी अलिप्त भाव से जलकमलवत् निर्लेप होकर रहती है। जैसे कहा है : 'सम्यग्दृष्टि जीवड़ा करे कुटुम्ब प्रतिपाल। अन्तर थी न्यारो रहे, ज्यों धाय खिलावे बाल।। अन्तरात्मा 'स्व' और 'पर' की भिन्नता के द्वारा आत्माभिमुखी होकर स्वस्वरूप में ही निमग्न रहती है। रयणसार', समाधितन्त्र, परमात्मप्रकाश', आदि ग्रन्थों में अन्तरात्मा के स्वरूप का विस्तृत विवेचन किया गया है। कुन्दकुन्दाचार्य ने मोक्षपाहुड में आत्मसंकल्प रूप आत्मा को अन्तरात्मा कहा है। ४.२.१ कुन्दकुन्ददेव की दृष्टि में अन्तरात्मा का स्वरूप (क) मोक्षप्राभृत में अन्तरात्मा का स्वरूप ___ अन्तरात्मा के स्वरूप लक्षणों को स्पष्ट करते हुए आचार्य कुन्दकुन्ददेव मोक्षप्राभृत में लिखते हैं कि बहिरात्मा का त्याग करके अन्तरात्मा पर आरूढ़ होकर अर्थात् भेदविज्ञान के द्वारा अन्तरात्मा -समाधितंत्र पद्य ५ । रयणसार १४१ । 'चित्त दोषात्मविभ्रान्तिः परमात्माऽतिनिर्मलः । परमात्मप्रकाश दोहा १४ । मोक्खपाहुड ५, ६। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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