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________________ * मंगल कामना साध्वी प्रियलताश्रीजी ने 'जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा' विषय पर अनेक ग्रन्थों का अवलोकन कर विशद विवेचन द्वारा इस ग्रंथ का निर्माण किया यह जानकर हृदय अत्यंत प्रमुदित बना। मैं आप के ज्ञान योग की साधना का अन्त:करण से अनुमोदन करता हूँ। अध्यात्मवादी प्रबुद्ध चिन्तनशील मनीषियों के लिए आध्यात्मिक क्रमिक विकास हेतु जैन दर्शन में महत्त्वपूर्ण चिन्तन पाया जाता है। अनादि अनंत संसार के निबिडतम जंगल में कर्मबद्ध आत्मा निरंतर अनंतकाल चक्र तक परिभ्रमण, पर्यटन कर रही है। आखिर परिभ्रमण का क्या कारण है ? आत्मा अपने अनंत स्वाभाविक वैभव को आज तक क्यों नहीं पा सकी ? विषय एवं कषायों के निमित्तों को पाकर आत्मा पुनः पुनः माया में आत्मा आत्मत्व अपनापन की बुद्धि क्यों करती रहती है। जैन दर्शन में इन प्रश्नों का प्रत्युत्तर देते हुए कहा है कि जन्म-जन्मांतरीय अनुबन्धता से प्रगाढ़ किया हुआ बहिरात्मा भाव ही इन सब की जड़ है। आत्मा जब बहिर्भाव- पुद्गल भाव-अनात्म भावों में चली जाती है... तब वह बहिरात्मा है । एवं काया को सिर्फ साक्षी मानकर देहाध्यास- देहवृत्ति को छोड़कर आत्मा जब अपनी आत्मा में अवस्थान कर लेती है, उसी में सुख एवं आनंद की अनुभूति करती है तब वह अन्तरात्मा है। और जब ज्ञानानंद से परिपूर्ण बन कर कर्मों से शुद्ध होकर एवं सकल आदि-व्याधि-उपाधि से मुक्त बनकर जो अतीन्द्रिय गुणों का निधान स्वरूप है... वह परमतत्त्व परमात्मा है। जैन दर्शन में इन त्रिविध आत्मा की विस्तृत रूप से परिकल्पना करके बहिरात्मा भाव से कैसे बचना एवं उससे विराम पाकर आत्मभाव में अवस्थित बन कर परमात्मा भाव को कैसे संप्राप्त करना, विदुषी साध्वी श्री प्रियलताश्रीजी ने इस विषय पर विविध शोधपूर्वक परिश्रम करके जो विस्तृत निबंध आलेखित किया है, एतदर्थ वे साधुवाद के पात्र हैं। पाठकगण भी इसका समुचित पठन, अभ्यास एवं परिचिन्तन करें तभी साध्वीजी का यह प्रयास विनियोग के रूप में सफल बनेगा। मैं पूर्ण विश्वास रखता हूँ कि सा. प्रियलताश्रीजी पंचविध स्वाध्याय में अनुप्रेक्षारूप ऐसे निबंध अन्य अनेक विषयों पर भी आलेखित करके विद्वद् वृन्द एवं साधक गण के लिए आत्मानंद के रसपान में आलंबन रूप बने - यही मंगल कामना । आधोई (कच्छ), 2007 - पं. कीर्तिचन्द्र विजय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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