SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 218
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बहिरात्मा १७१ साधनों में एकत्व बुद्धि को स्थापित कर लेती है। यह देह मेरी है या मैं देह-रूप ही हूँ और देह सम्बन्धी समस्त पर-पदार्थ मेरे हैं। पिता, पत्नी, पति, पुत्र, पुत्री आदि दैहिक सम्बन्धों में ममत्व बुद्धि का आरोपण कर उन्हें अपना मानकर उनमें आसक्ति रखती है। वह स्वयं को सांसारिक क्रियाओं का कर्ता-भोक्ता मानकर मिथ्या अहंकार करती है। बहिरात्मा वर्तमान पौदुगलिक सुखों को प्राप्त करने हेतु अथक प्रयास करती रहती है। वह दिन-रात परिश्रम करती है, पसीना बहाती है; आकाश पाताल एक करके जो भी पुरुषार्थ करती है, मात्र बाह्य के लिए करती है। आत्म विशुद्धि हेतु अर्थात् अपनी आत्मा के कल्याण हेतु उसका कोई प्रयत्न या पुरुषार्थ नहीं होता है। इस प्रकार बाह्य जागतिक प्रवृत्तियों में सदैव उलझा रहना ही बहिरात्मा का लक्षण है। बहिरात्मा के स्वरूप-लक्षण और प्रकारों की चर्चा के पश्चात् हम यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि विभिन्न जैनाचार्यों ने इस सम्बन्ध में अपने मन्तव्य किस रूप में प्रस्तुत किए हैं। ३.२.१ आचार्य कुन्दकुन्द की दृष्टि में बहिरात्मा का स्वरूप, नियमसार में बहिरात्मा आचार्य कुन्दकुन्द नियमसार के आवश्यकाधिकार में बहिरात्मा के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि बहिरात्मा देह, इन्द्रिय आदि में आत्मबुद्धि रखती है, बाह्यतत्त्व में निमग्न रहती है, स्वभावदशा का त्याग करके विभावदशा में भटकती है। बहिरात्मा धर्मध्यान और शुक्लध्यान से रहित होती है। वह संसाररुपी विकल्पजाल में उलझकर अपना जीवनयापन करती है। इस मूढ़ आत्मा के विचार अन्तरात्मा और परमात्मा के विचारों से भिन्न होते हैं। बहिरात्मा परमतत्त्व में श्रद्धा नहीं करती है। बहिरात्मा जड़ पदार्थों में मूर्छा रखती है, वह आत्म सजगता में नहीं, अपितु प्रमाद में जीती है। कुन्दकुन्द की दृष्टि में जो आत्मा स्वात्माचरण से रहित हो, वह बहिरात्मा है। उसे सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy