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________________ १५५ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा करती है।' पुनः अन्तरात्मा के लक्षण को स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं कि जो परभव का त्याग करके परमात्मा और अपने आत्मस्वरूप को जानती है, उसे पण्डित आत्मा या अन्तरात्मा कहा गया है। यह अन्तरात्मा संसार का परित्याग करती है। दूसरे शब्दों में सांसारिक जीवन के व्यामोह में नहीं उलझती है।६२ आगे वे कहते हैं कि जो निर्मल, निश्छल, शुद्ध, जिन, विष्णु, बुद्ध, शिव और शान्त है उसे ही जिनेन्द्रदेव ने परमात्मा कहा है; ऐसा निःभ्रान्त रूप से जानना चाहिये। इस प्रकार योगीन्दुदेव सांसारिक अभिरुचि से युक्त आत्मा को बहिरात्मा, संसार से विमुख आत्मा को अन्तरात्मा और शुद्ध आत्मा को ही परमात्मा कहते हैं। इस प्रकार बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा - ये आत्मा की ही विभिन्न अवस्थाएँ हैं। जब तक यह आत्मा पर-पदार्थों में आसक्त रहती है तब तक वह बहिरात्मा है। जब वह इन पर-पदार्थों के प्रति आसक्ति का त्यागकर अपने शुद्ध आत्मतत्त्व का ध्यान करती है, तब उसे अन्तरात्मा कहा जाता है और जब वह कर्मों से रहित होकर अपने शुद्धस्वरूप को प्राप्त करती है तो उसे परमात्मा कहा जाता है। यद्यपि योगसार में योगीन्दुदेव त्रिविध आत्मा की विस्तार से चर्चा करते हैं किन्तु निश्चय से वे यह मानते हैं कि ये तीनों भेद औपचारिक ही हैं। उनका कहना है कि जो परमात्मा है वही मैं हूँ; जो मैं हूँ वही परमात्मा है।६३ इस प्रकार योगीन्दुदेव ने जो तीन प्रकार की आत्मा की चर्चा की है वह केवल पर्यायदृष्टि से ही समझना चाहिये। वे स्पष्ट रूप से लिखते हैं कि मार्गणास्थान, गुणस्थान, जीवस्थान आदि सब व्यवहारनय की अपेक्षा से कहे जाते हैं। निश्चय में तो ऐसा कोई भेद घटित नहीं होता। उनका स्पष्टरूप से कहना है कि जो परमात्मा है वही मैं हूँ। यही जैन -वही । -वही। ६१ (अ) 'मिच्छादसण-मोहियउ परु अप्पा ण मुणेइ। . सो बहिरप्पा जिण-भणिउ पुण संसार भमेइ ।। ७ ।।' (ब) देहादिउ जे परि कहिया ते, अप्पाणु मुणेइ । सो बहिरप्पा जिणभणिउ पुणु संसारु भमेइ ।। १० ।' ६२ 'जो परियाणइ अप्पु परु जो परभाव चएइ । सो पंडिउ अप्पा मुणहु सो संजारु मुएइ ।। ८ ।।' ६३ 'णिम्मलु णिक्कलु सुद्ध जिणु विण्हु बुद्ध सिव संतु । सो परमप्पा जिण-भणिउ एहउ जाणि णिभंतु ।। ६ ।।' -योगसार । -वही । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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