SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 189
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा बुद्ध या बोधिसत्त्व की अवस्था को प्राप्त करके लोकमंगल करने की होती है । हीनयान से महायान की ओर संक्रमणकाल में रचित 'महावस्तु' नामक ग्रन्थ में निम्न दस भूमियों का उल्लेख मिलता है : (१) दुरारोहा; (२) बुद्धमन; (३) पुष्पमण्डिता; (४) रुचिरा; (५) चितविस्तार; (६) रूपमति; (७) दुर्जया; (८) जन्मनिदेश; (६) यौवराज; और (१०) अभिषेक । १४४ यद्यपि ये दस भूमियाँ भी प्राणी के बुद्धत्व की ओर होने वाली क्रमिक अवस्थाएँ हैं । फिर भी महायान सम्प्रदाय में जिन दस भूमियों का उल्लेख उपलब्ध होता है; उनके नाम कुछ भिन्न हैं । महायान सम्प्रदाय में दस भूमियों की चर्चा करने वाला एक स्वतन्त्र ग्रन्थ है जिसका नाम ' दसभूमिशास्त्र' है। 'दसभूमिशास्त्र' में निम्न दस भूमियों का उल्लेख है : (१) प्रमुदिता; (५) सुदुर्जया; (२) विमला; (६) अभिमुक्ति; (६) साधुमति; और (१०) धर्ममेघा | २७ (३) प्रभाकरी; (४) अर्चिष्मती; (७) दूरंगमा; (८) अचला; किन्तु महायान सूत्रालंकार और लंकावतारसूत्र में प्रथम भूमि का नाम अधिमुक्तिचर्याभूमि दिया गया है तथा भूमियों की संख्या दस बनाए रखने के लिए अन्तिम धर्ममेधा या बुद्धभूमि को भूमियों में नहीं गिना गया है । लंकावतारसूत्र की एक अन्य विशेषता यह है कि वह धर्ममेधा और गणभूमि ( बुद्धभूमि) का उल्लेख करता है । अधिमुक्तचर्याभूमि का इन दस भूमियों में समावेश करने पर इनकी संख्या ग्यारह हो जाती है । आगे हम इनका क्रमशः विवेचन प्रस्तुत करेंगे। (१) अधिमुक्तचर्याभूमि : असंग के अनुसार प्रथम भूमि अधिमुक्तचर्याभूमि है । प्रकारान्तर से अन्य ग्रन्थों में कहीं प्रमुदिता को भी प्रथम भूमि कहा है। इस भूमि में साधक को पुद्गलनैरात्म्य और धर्मनैरात्म्य का यथार्थबोध होता है । इस भूमि में दृष्टिविशुद्धि होती है। इस भूमि को जैनदर्शन के चतुर्थ अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान के समकक्ष कहा जा सकता है। अधिमुक्तचर्याभूमि को बोधिप्रणिधिचित्त की अवस्था २७ 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग २ पृ. ४७५-७६ । - डॉ. सागरमल जैन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy