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________________ १४२ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा है। साधक इस अवस्था में बन्धन के मूल कारण राग-द्वेष, मोह आदि का प्रहाण कर देता है। इस भूमि में साधक राग-द्वेष और उनके कारण होनेवाले आम्नव को क्षय करने का प्रयत्न करता है। बौद्धदर्शन में आस्रव का तात्पर्य राग-द्वेष की वृत्तियों से है। स्रोतापन्नभूमि में व्यक्ति मोह का त्याग करता है, किन्तु उसमें राग-द्वेष के तत्त्व अव्यक्त रूप से बने रहते हैं। अतः संस्कारों का आस्रव होता रहता है। सकृदागामीभूमि में आकर साधक आस्रव के हेतु रूप और राग द्वेष का क्षय करता है। इस भूमि की तुलना जैनदर्शन के आठवें, नौवें और दसवें गुणस्थान से की जा सकती है। जैन विचारधारा के अनुसार इस अवस्था में मृत्यु प्राप्त होने पर अधिक से अधिक तीसरे जन्म में साधक मोक्ष या निर्वाण को प्राप्त कर लेता है; जबकि बौद्धदर्शन के अनुसार सकृदागामीभूमि का साधक साधनाकाल में मृत्यु को प्राप्त होने पर अगले जन्म में निर्वाण को प्राप्त कर लेता है। इस अन्तर का मूल कारण यह है कि जैनदर्शन में देवयोनि से निर्वाण या मोक्ष का अभाव माना गया है। जबकि बौद्धदर्शन के अनुसार साधक देवयोनि से भी सीधे निर्वाण को प्राप्त कर सकता है। अतः उन्होंने यह माना है कि सकृदागामीभूमि को प्राप्त साधक अगले जन्म में मुक्ति को प्राप्त करता है। सैद्धान्तिकदृष्टि से इसमें कोई विशेष मतभेद नहीं है। क्योंकि इसमें जैनदर्शन इन गुणस्थानों से दूसरे जन्म में मुक्ति की इस सम्भावना को अस्वीकार नहीं करता है। त्रिविध आत्मा की अवधारणा से तुलना करने पर हम यह कह सकते हैं कि सकृदागामीभूमि उत्कृष्ट अन्तरात्मा के समरूप है। ३) अनागामीभूमि : जब साधक प्रथम स्रोतापन्न भूमि में सत्कायदृष्टि, विचिकित्सा और शीलव्रत परामर्श - इन तीनों संयोजनों तथा सकृदागामीभूमि में काम-राग और द्वेष इन दो संयोजनों - पंच भूभागीय संयोजनों को क्षय कर देता है, तब उसकी तितिक्षा और निर्भागवृत्ति तीव्रतम होती जाती है और वह अनागामीभूमि को उपलब्ध कर लेता है। अनागामी भूमि को प्राप्त साधक यदि विकास की दिशा में अग्रसर नहीं होता है, तो मृत्यु होने पर ब्रह्मलोक में जन्म लेकर वहीं से सीधे निर्वाण (मुक्ति) को उपलब्ध करता है। साधनात्मक दिशा में अग्रसर इस साधक को इस अवस्था में निम्न पांच उड्ढभागीय संयोजनों को क्षय करना होता है : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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