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________________ १४० जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा उनमें भी आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से तरतमता होती है। बौद्ध ग्रन्थों में इसे दो भागों में बाँटा गया है : (१) प्रथम अन्धपृथक्जनभूमि; (२) कल्याण पृथक्जनभूमि। प्रथम अन्धपृथक्जनभूमि में चाहे व्यक्ति का दृष्टिकोण पूर्णतः सम्यक् नहीं होता, फिर भी वह जीवन व्यवहार में सदाचार और नैतिकता का पालन करता है। उसका आचरण धर्म ही होता है। तुलनात्मक दृष्टि से इस अवस्था को जैनधर्म की मार्गानुसारी अवस्था के समकक्ष माना जा सकता है। ऐसा व्यक्ति धर्ममार्ग का अनुसरण करनेवाला होता है। उसमें सम्यग्दृष्टि का विकास नहीं होता है। हीनयान परम्परा में सम्यग्दृष्टि सम्पन्न निर्वाणमार्ग पर आरूढ़ साधक को अर्हत् अवस्था की प्राप्ति करने के लिए आध्यात्मिक विकास की इन भूमियों (अवस्थाओं) को पार करना होता है (अनागामीभूमि दो-दो अवस्थानीय सिद्ध (१) स्रोतापन्नभूमि; (२) सकृदागामी; (३) अनागामीभूमि; और (४) अर्हत्भूमि। इन चारों भूमियों में भी दो-दो अवस्थाएँ होती हैं - प्रथम साधक अवस्था या मार्ग की अवस्था और द्वितीय सिद्ध अवस्था या फलकी अवस्था। अगले पृष्ठों में हम इन चारों भूमियों के सम्बन्ध में किंचित् विस्तार से चर्चा करेंगे। (१) स्रोतापन्नभूमि : स्रोतापन्न अर्थात् स्रोत को प्राप्त या दूसरे शब्दों में मार्ग को प्राप्त करके अपने गन्तव्य को प्राप्त करने के लिए अग्रसर बना हुआ। बौद्ध दार्शनिकों के अनुसार जब साधक तीन संयोजनों का नाश कर देता है, तब वह इस अवस्था को उपलब्ध करता है। ये तीन संयोजन निम्न हैं : (१) सत्कायदृष्टि : देहात्मकबुद्धि अर्थात् वह शरीर को ही आत्मा मानता है और उसी में ममत्वबुद्धि रखता है। उसमें 'मैं' और 'मेरापन' का आरोपण करता है (स्वकाये दृष्टिःचन्द्रकीर्ति); (२) विचिकित्सा : संदेहात्मक स्थिति; एवं शीलव्रत परामर्श अर्थात् वह व्रत उपवास, तपश्चर्या आदि धार्मिक अनुष्ठानों एवं कर्मकाण्डों को ही साधना का सर्वस्व मान लेता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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