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________________ १३८ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा नहीं होती है किन्तु कर्मों के आवरण के कारण धूमिल हो जाती है। सुषुप्तावस्था में भी व्यक्ति को सुखानुभूति का आस्वाद रहता है और जागने के बाद भी ऐसा अनुभव होता है कि “आज मैं सुखपूर्वक सोया।" ऐसा अनुभव यह सिद्ध करता है कि सुषुप्ति अवस्था में भी चैतन्य विद्यमान रहता है। सुषुप्त अवस्था में चेतना सुख का संवेदन करती है। तभी तो व्यक्ति कहता है “मैं सुखपूर्वक सोया।" यह स्मृति सिद्ध करती है कि सुषुप्तावस्था में भी चेतना नष्ट नहीं होती है।" वह विद्यमान रहती है। स्मृति यह सिद्ध करती है कि सुषुप्तदशा में आत्मा में चैतन्य विद्यमान रहता है। प्रमेयकमलमार्तण्ड में प्रभाचन्द्र ने बताया है कि स्मृति ज्ञान के अभाव में नहीं होती। सुषुप्त अवस्था में स्मृति रहती है।२२ न्यायवैशेषिकों ने आत्मा में ज्ञानगुण का अभाव माना है। किन्तु चेतन या ज्ञान के अभाव में विषय की स्मृति कैसे हो सकती है? यदि न्यायवेशैषिक दार्शनिक सुषुप्त अवस्था में आत्मा में ज्ञान की सत्ता नहीं मानेंगे तो सुषुप्तावस्था की स्मृति भी सिद्ध नहीं हो सकेगी।३ क्योंकि निद्रा के सुख का संवेदन चेतना या ज्ञानगुण के बिना सम्भव नहीं है। अतः आत्मा ज्ञानस्वरूप है या ज्ञान आत्मा का स्वभाव है। विद्यानन्दी का कहना है कि यदि आत्मा को अज्ञानस्वरूप स्वीकार करते हैं तो आत्मा अचेतन सिद्ध हो जायेगी। इसलिए यह मानना होगा कि सुषुप्त अवस्था में आत्मा में चैतन्य विद्यमान रहता है। इसी कारण से आत्मा चैतन्यस्वरूप या ज्ञानस्वरूप है।४ २.२.१ बौद्धदर्शन में आध्यात्मिक विकास की विभिन्न अवस्थाएँ उपनिषदों के समान ही बौद्धदर्शन में भी आध्यात्मिक विकास २० न्यायकुमुदचन्द्र, पृ. ८४८; विवरणप्रमेय संग्रह, पृ. ६० । २" न्यायकुमुदचन्द्र, पृ. ८४८; विवरणप्रमेय संग्रह, पृ. ६० । २२ प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ. ३२३ । न्यायकुमुदचन्द्र, पृ. ८५० । 'जीवों ह्येचेतनः काये जीवत्वाद् बाह्यदेशवत् । वक्तुमेवं समर्थोऽन्यः किं न स्याज्जड जीववाक् ।।' -तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक १/२३१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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