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________________ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा माण्डूक्योपनिषद् एवं सर्वसारोपानिषद् में इन्हीं अवस्थाओं के विशिष्ट उल्लेख हैं। योगवासिष्ठ" में भी आत्मा की इन अवस्थाओं की चर्चा प्राप्त होती है; किन्तु प्राचीन जैनागमों में जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति एवं तुरीय इन चारों अवस्थाओं का स्पष्ट उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। आचारांगसूत्र" में जाग्रत एवं सुषुप्ति ( प्रसुप्त ) - इन दो अवस्थाओं का चित्रण अवश्य परिलक्षित होता है । उसमें अज्ञानी को सुप्त एवं ज्ञानी को जाग्रत कहा गया है। प्रकारान्तर से प्रमत्त आत्मा को सुप्त और अप्रमत्त को जाग्रत कहा जाता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने मोक्षप्राभृत में आचार्य पूज्यपाद ने समाधिशतक में और परमात्मप्रकाश ̈ में सुषुप्त और जाग्रत इन दो अवस्थाओं की चर्चा की है। गीता" में भी इन दो अवस्थाओं का विवरण प्राप्त १३४ ८ ६ १० 99 १२ १३ १५ - जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणो कज्जे ॥।' 'व्यवहारे सुषुप्तो यः स जागर्त्यात्मगोचरे । जागर्ति व्यवहारेऽस्मिन् सुषुप्तो श्चात्मगोचरे ।। ' १४ 'जा णिसि सयलहं देहियहं जोग्गिउ तहिं जग्गेइ । माण्डूक्योपनिषद् २-१२ । 'मन आदि चतुर्दशकरणैः पुष्कलैरादित्याद्यनुगृहीतैः शब्दादीन्विषयान् स्थूलान्यदोपलभते तदात्मनो जागरणं, तद्वासना रहितश्चतुर्भिः करणैः शब्दाद्याभावेऽपि वासनामयान्शब्दादीन्यदोपलभते तदात्मनः स्वप्नम् । चतुर्दशकरणोपरमाद् विशेषविज्ञानाभावाद्यदातदात्मनः अवस्थात्रय भावाद्भावसाक्षि स्वयं भावाभाव रहितं नैरन्तर्य चैक्यं यदा सुषुप्तम् ।। १ ।। तदा तुत्तरीयं चैतन्यमित्युच्यतेऽत्र कार्याणं षण्णां कोशानां समूहो ऽत्रमयः कोश इत्युच्यते ।' -सर्वसारोपनिषद् ३५ । 'जागृतस्वप्न सुषुपताख्यं त्रयं रूपं हि चेतसः ।। ३६ ।। घोरं शान्तं मूढं च आत्मचितमिहास्थितम् । घोरं जाग्रन्मयं चित्तं शान्तं स्वप्नमयं स्थितिम् ।। ३७ ।। मूढं सुषुप्तभावस्थं त्रिभिर्हीनं मृतं भवेत् । यच्च चित्तं मृतं तत्र सत्त्वमेकं स्थितं समम् ।। ३८ ।। अहं भावानहं भावौ त्यक्त्वा सदसती तथा । यदसक्तं समं स्वच्छं स्थितं तत्तुर्यमुच्यते ।। २३ ।।' -योगवासिष्ठ ६/१/१२४ ( उद्धृत, योगवासिष्ठ और उसके सिद्धान्त पृ. २७५- ७८ ) । 'सुत्ता अमुणी मुणिणो सया जागरन्ति, ' -आचारांगसूत्र ३/१/१ 'जो जग्गदि ववहारे सो जोइं जग्गए सकज्जम्भि । - Jain Education International जहिं पुणु जग्गइ सयलु जगु, सा णिसि मुणिवि सुवेइ ।। ४६ ।।' 'या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी । यस्यां जाग्रति भूतानि, सा निशा पश्यतो मुनेः ।। ' For Private & Personal Use Only - मोक्षप्राभृत गा. ३१ । -समाधितंत्र, श्लो. ७८ - परमात्मप्रकाश २ । - गीता २/६६ । www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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