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________________ अध्याय २ औपनिषदिक, बौद्ध एवं जैनसाहित्य में आत्मा की अवस्थाएँ २.१.१ औपनिषदिकदर्शन में आत्मा की दो अवस्थाएँ आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से आत्मा की विविध अवस्थाओं का चित्रण प्रायः सभी भारतीय दर्शनों में हुआ है। उपनिषद्कालीन चिन्तन में आत्मा के दो रूपों की चर्चा प्रायः उपलब्ध होती है : 9 ये दोनों स्थितियाँ क्रमशः भौतिकवादी जीवनदृष्टि और आध्यात्मिक जीवनदृष्टि जीवनदृष्टि की परिचायक मानी जाती हैं । मनोवैज्ञानिकदृष्टि से इन्हें हम (१) बहिर्मुखी व्यक्तित्व; और (२) अन्तर्मुखी व्यक्तित्व ऐसे दो भागों में विभाजित कर सकते हैं। इन दोनों प्रकार की जीवनदृष्टियों को ईशावास्योपनिषद् में (१) अविद्या; और (२) विद्या के रूप में चित्रित किया गया. है 1 गीता', जिसे उपनिषदों का सारतत्त्व कहा जाता है, इन्हें कृष्णपक्षी और शुक्लपक्षी के रूप में अभिहित करती है । लक्षण की दृष्टि से हम यह कह सकते हैं कि बहिः प्रज्ञ वह है जो शरीरादि भौतिक वस्तुओं से अपना तादात्म्य स्थापित कर उनमें ममत्वबुद्धि रखता है और उन्हीं से जुड़कर जीवन व्यतीत करता है। जबकि अन्तःप्रज्ञ उसे कहा जाता है जो आत्मा को ही मुख्यता प्रदान करता है और जिसकी जीवनदृष्टि अन्तर्मुखी होती है । उसका प्रयास आत्मा को जानने और जीने का रहता है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि (१) बहिःप्रज्ञ और (२) अन्तःप्रज्ञ । Jain Education International 'शुक्लकृष्णे गती येते जगतः शाश्वते मते । एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः ।। २६ ।।' For Private & Personal Use Only - गीता ८ www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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