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________________ विषय प्रवेश ११६ तुलनात्मक दृष्टि से ज्ञानात्मा को बहिरात्मा, महदात्मा को अन्तरात्मा और शान्तात्मा को परमात्मा कहा जा सकता है। जैनदर्शन में मोक्षप्राभृत७४, नियमसार'७५, रयणसार ७६, योगसार ७७, कार्तिकेयानुप्रेक्षा ७८ आदि जैन ग्रन्थों में बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा के रूप में आत्मा के तीन प्रकार स्वीकार किये गए हैं। ज्ञान के विकास की दृष्टि से आत्मा की ये तीनों अवस्थाएँ क्रमशः (१) मिथ्यादर्शी आत्मा; (२) सम्यग्दर्शी आत्मा; और (३) सर्वदर्शी आत्मा के रूप में मानी जा सकती हैं। साधना की दृष्टि से इन्हें क्रमशः इस प्रकार भी कह सकते हैं.७६ : (१) पतित अवस्था; (२) साधक अवस्था; और (३) सिद्धावस्था। डॉ. सागरमल जैन ने नैतिकता के आधार पर अपेक्षा भेद से आत्मा की तीन अवस्थाओं को निम्न प्रकार से उल्लिखित किया है : (१) अनैतिकता की अवस्था; (२) नैतिकता की अवस्था; और (३) अतिनैतिकता की अवस्था। प्रथम अवस्थावाला व्यक्ति दुरात्मा या दुराचारी है; वह बहिर्मुख है। सदाचारी या महात्मा दूसरी अवस्था है। इसे अन्तरात्मा भी कहा जाता है। आदर्शात्मा या परमात्मा-यह तीसरी अवस्था है।६० __ जैनदर्शन में आध्यात्मिक विकास के गुणस्थान सिद्धान्त की दृष्टि से पहले से तीसरे गुणस्थान तक बहिरात्मा की अवस्था है। चतुर्थ से बारहवें गुणस्थान तक की अवस्था अन्तरात्मा है और तेरहवां एवं चौदहवां गुणस्थान परमात्मदशा का सूचक है। ४७५ ४७४ मोक्षप्राभृत ४ । ४५ नियमसार १४६-५० । ७७५ रयणसार १४१ । ४७७ “ति पयारो अप्पा मुणहि परु अंतरु बहिरप्पु । पर जायहि अंतर सहिउ बाहिरु चयहि णिमंतु ।।६।।' -योगसार । ४७८ 'जीवा हवंति तिविहा, बहिरप्पा तह य अंतरप्पा य । परमप्पा विहंय दुविहा, अरहंता तह य सिद्धा य ।। १६२ ।।' -स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा । ४७६ 'जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग २ पृष्ठ ४४७-४८ । ___-डॉ. सागरमल जैन । ४८० वही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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