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________________ ११० ४४२ रहना परीषहजय है । ४४२ परिषह के २२ भेद हैं : ४४४ २. तृषा; १. क्षुधा; ५. दंशमशक; ६. अचेल; ६. चर्या; १०. निषद्या; १४. याचना; १३. वध; १७. तृणस्पर्श; १८. मल, २०. प्रज्ञा; ४४७ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा (६) चारित्र : चारित्र कर्मास्रव के निरोध ( संवर) का मार्ग है । समता, मध्यस्थ्य, शुद्धोपयोग, वीतरागता, धर्म और स्वभाव के अर्थ में 'चारित्र' शब्द का प्रयोग उपलब्ध है ।४४४ सर्वार्थसिद्धि में पूज्यपाद ने चारित्र की व्युत्पत्ति करते हुए कहा है कि जो आचरण करता है, जिसके द्वारा आचरण किया जाता है अथवा आचरण करना ही चारित्र है । ४४५ मोक्षपाहुड में आचार्य कुन्दकुन्द ने पुण्य और पाप के त्याग को चारित्र कहा है 1 ४४५ नयचक्र गा. ३५६ । ४४६ ३. शीत; ७. अरति; ११. शय्या; 'क्षुधादिवेदनोत्पत्तौ कर्मनिर्जरार्थं सहनं परिषहः। परिषहस्य जयः परिषह जयः ।' २१. अज्ञान और २२. अदर्शन । ४४३ अन्य कुछ आचार्यों ने मन, वचन और काया की संसार परिभ्रमण में कारणभूत क्रियाओं के त्याग को ही चारित्र माना है । ४४६ कर्मास्रव में चारित्र के ५ भेद किये गये हैं -४४७ ४४३ तत्त्वार्थसूत्र ६/६ | ‘चारित्रमन्ते गृह्यते मोक्षप्राप्तेः साक्षात्कारणमिति ज्ञापनार्थम् ।' १५. अलाभ; १६. सत्कार-पुरस्कार; (१) सामायिक; (२) छेदोपस्थापना; (३) परिहारविशुद्धि; (४) सूक्ष्मसम्पराय; और ( ५ ) यथाख्यात । (घ) तत्त्वानुशासन, का. २७ । Jain Education International ४. उष्ण; ८. स्त्री १२. आक्रोश; १६. रोग 'तं चारित्तं भणियं परिहारो पुण्णपावाणं ।' (क) सर्वार्थसिद्धि १/१; (ख) वही १,१,३; (ग) 'बहिरब्धंतरकिरियारोहो भवकारणपणासट्टं । गणिस्स जं जिणुत्तं तं परमं सम्मचारित्तम् ।। ४६ ।। For Private & Personal Use Only - - सर्वार्थसिद्धि, ६/२ । - सर्वार्थसिद्धि ६/१८ | -मोक्षपाहुड गा. ३७ । - द्रव्यसंग्रह । www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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