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________________ १०६ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा महत्त्वपूर्ण एवं प्रमुख स्थान है। संवर कर्मों के आस्रव के निरोध की प्रक्रिया है। अकलंकदेव कहते हैं - "जिस प्रकार नगर की अच्छी तरह से घेराबन्दी कर देने से शत्रु नगर में प्रवेश नहीं कर पाते हैं; वैसे ही गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषहजय और चारित्र के द्वारा इन्द्रिय, कषाय और योग को संवृत कर देने पर आत्मा में आनेवाले नवीन कर्मों का रुक जाना संवर है।"४२५ जैनाचार्यों ने एक दूसरे उदाहरण के द्वारा भी संवर के स्वरूप को समझाया है - "जिस प्रकार छिद्रयुक्त नौका के छेद को बन्द कर देने से उसमें जल प्रविष्ट नहीं होता है, उसी प्रकार मिथ्यात्व आदि आस्रव द्वारों को सर्वतः अवरुद्ध कर देने से संवृत आत्मा के आत्मप्रदेशों में कर्मद्रव्य प्रविष्ट नहीं होता।२६ ।। संवर के हेतु : उमास्वाति ने कर्मानव में (१) गुप्ति; (२) समिति; (३) धर्म; (४) अनुप्रेक्षा; (५) परीषहजय; और (६) चारित्र, तपादि को संवर का कारण माना है।४२७ (१) गुप्ति : गुप्ति का अर्थ है आत्मा की रक्षा करना। गुप्ति के बिना कर्मों का संवर नहीं हो सकता है। भगवतीआराधना, मूलाचार आदि में कहा गया है - जिस प्रकार नगर सुरक्षा के लिए कोट अनिवार्य है और खेत की सुरक्षा के लिए काँटों की बाड़ आवश्यक है; वैसे ही पापों को रोकने के लिए गुप्ति आवश्यक है।४२८ पूज्यपाद देवनन्दी ने कहा है कि संक्लेशरहित होकर योगों का निरोध करने से उनसे आनेवाले कर्मों का आगमन रुक ४२५ तत्त्वार्थवार्तिक १, ४, ११ तथा ६/११ । ४२६ 'संधिय छिद्दसहस्से जलजाणे जह जलं तु णासवदि । मिच्छताइअभावे तह जीवे संवरो होई ।। १५६ ।।' ४२७ ‘स गुप्तिसमिति धर्मानुप्रेक्षा परीषहजय चारित्रैः' ४२८ (क) भगवतीआराधना गा. ११८६ (ख) मूलाचार गा. ३३४ । -नयचक्र। तत्त्वार्थसूत्र ६/२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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