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________________ ६२ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा 1 मनुष्य और देव ये चार गतियाँ हैं । कषायमोहनीय के उदय से क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय पैदा होते हैं। वेदमोहनीय के उदय से स्त्री, पुरुष और नपुसंकवेद अर्थात् तत्सम्बन्धी वासना का उदय होता है । मिथ्यात्वमोहनीय के उदय से मिथ्यादर्शन का उदय होता है । अज्ञान ज्ञानावरणीय कर्म के उदय का फल है । असंयत्त्व अनन्तानुबन्धी आदि बारह प्रकार के चारित्र मोहनीय के उदय का परिणाम है। असिद्धत्व, वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र आदि के उदय का परिणाम है कृष्ण, नील, कापोत, तेजो, पद्म और शुक्ल ये छः लेश्याएँ कषाय के उदय अथवा योगजनक शरीर नामकर्म के उदय का परिणाम है। इस तरह से गति आदि इक्कीस पर्याय औदायिक हैं। आत्मप्रदेशों में मन, वचन और काया के योग से शुभ-अशुभ कर्मों का संचय होता रहता है । सत्वकर्म अर्थात् सत्ता में रहे हुए संचित कर्म विपाकोदय द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से फल प्रदान करते हैं । २५१ जब कर्मों का उदय होता है तब आत्मा की स्वाभाविक शक्ति आवृत्त होती है एवं उसके परिणाम भी कर्मप्रकृति की भाँति हो जाते हैं । कर्मों के उदय से होने वाला आत्मा का भाव औदयिक भाव कहा जाता है ३५२ ३५१ - (क) सर्वार्थसिद्धि २/१; (ख) गोम्मटसार ( जीवकाण्ड) जीवत्व प्रदीपिका ८ । (क) तत्त्वार्थवार्तिक २/१/६; ३५२ (ख) 'कर्मणामुदयादुत्पन्नो गुणः औदयिकः ।' _.३५३ (५) पारिणामिकभाव ३ : जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व ये तीन भाव स्वाभाविक हैं । ये आत्मा के असाधारण पारिणामिक भाव हैं। ये न तो कर्मों के उदय से, न उपशम से, न क्षय से और न क्षयोपशम से उत्पन्न होते हैं । ये जीव के अस्तित्व से ही सिद्ध हैं । अतः ये पारिणामिकभाव हैं । ये पारिणामिक भाव तीन ही नहीं अपितु अनेक प्रकार के हैं. अस्तित्व, अनन्यत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व, गुणत्वं, प्रदेशत्व, असर्वगत्व, असंख्यात, प्रदेशत्व, अरूपत्व आदि । ३५४ इनमें कर्तृत्व- भोक्तृत्व भाव अशुद्ध पारिणामिक भाव हैं, क्योंकि ये संसार दशा में हैं । ३५३ ‘उदयादिनिरपेक्षः परिणामः तस्मिन् भवः पारिणामिकः ।' तत्त्वार्थसूत्र (पं. सुखलालजी विवेचन ) २ / ७ पृ. ४६ । ३५४ Jain Education International - - -धवला १/१/१/८ - गोम्मटसार जीवप्रकरण गा. ८ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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