SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 131
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा (२) तिर्यंचगति : उत्तराध्ययनसूत्र३२६ में तिर्यंच के दो भेद उपलब्ध हैं : (१) सम्मुछिम तिर्यंच; और (२) गर्भज तिर्यंच। सम्मुछिम तिर्यंच - जो सम्मुछिम जीव माता-पिता के संयोग के बिना चौदह अशुचि स्थानों में उत्पन्न होते हैं; वे सम्मुछिम तिर्यंच जीव कहलाते हैं। सम्मच्छिम तिर्यंच असंज्ञी होते हैं। इनके मन नहीं होता है। इस कारण वे नपुंसक होते हैं। गर्भज तिर्यंच - जो जीव गर्भ से उत्पन्न होते हैं; वे गर्भज कहलाते हैं। गर्भज-तिर्यंच जल, थल एवं आकाश में गति करनेवाले होने से इनके तीन भेद मिलते हैं - (१) जलचर; (२) थलचर; और (२) थलचर; और (३) खेचर ३२७ जलचर : जो जीव जल में गति करते हैं और उसी में रहते हैं; वे जलचर तिर्यंच जीव कहलाते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र की अपेक्षा से ये जीव पाँच प्रकार के होते हैं : (१) मत्स्य; (२) कच्छप; (३) ग्राह; (४) मकर; और (५) सुंषुमार। थलचर : पृथ्वी पर गति करनेवाले जीव थलचर कहे जाते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र३२६ में इनके मुख्यतः दो भेद बताये गये हैं : (१) चतुष्पद; और (२) परिसर्प। चतुष्पद थलचर के भेद : (१) एकखुर अश्व; (२) द्विखुर अश्व; (३) गण्डोद - हाथी; और (४) सनखपद - सिंह। परिसर्पजीव के भेद : (१) भुजपरिसर्प जैसे छिपकली, चूहा आदि; (२) उरपरिसर्प साँप आदि। खेचर : उत्तराध्ययनसूत्र३३० में इनके चार भेद उपलब्ध होते हैं : ३२६ वही ३६/१७० । २७ उत्तराध्ययनसूत्र ३६/१७१ । ३२८ वही ३६/१७२ एवं १७८ । ३२६ वही ३६/१७६-८१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy