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________________ विषय प्रवेश तो पुनर्जन्म किसका होगा? इस प्रकार एकान्त अपरिणामी या कूटस्थ आत्मवाद और एकान्त क्षणिक आत्मवाद समुचित नहीं हैं । अतः आत्मा को परिणामी नित्य मानना ही जैनदर्शन की .२६६ दृष्टि से समुचित प्रतीत होता है । १.५ भगवतीसूत्र के अनुसार आत्मा के आठ प्रकार जैनदर्शन में आत्मा के विभिन्न भेदों की चर्चा मुख्यतया उनके ऐन्द्रिक विकास के आधार पर की गई है। इसी आधार पर षड्जीवनिकाय और चौदह जीव स्थानों की चर्चा हुई है । आध्यात्मिक दृष्टि से आत्मा के चौदह भेदों की चर्चा गुणस्थान सिद्धान्त में भी मिलती है, किन्तु इसे विद्वानों ने परवर्तीकालीन माना है । प्रस्तुत शोध के विवेच्य विषय त्रिविध आत्मा की अवधारणा का उल्लेख प्राचीन स्तर के अर्द्धमागधी आगम साहित्य में प्रायः अनुपलब्ध ही है । त्रिविध आत्मा की सर्वप्रथम स्पष्ट चर्चा आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में ही उपलब्ध होती है | २७० यद्यपि अर्धमागधी आगम साहित्य में यथा प्रसंग जीवों की बहिर्मुखी प्रवृत्ति, संयमी जीवन तथा अरहन्तों और सिद्धों के स्वरूप के सम्बन्ध में यत्र-तत्र प्रकीर्ण सन्दर्भ उपलब्ध हो जाते हैं; फिर भी आध्यात्मिक क्षमता के आधार पर आत्मा के भेदों की कोई स्पष्ट चर्चा उपलब्ध नहीं होती । आगमों में विवेकक्षमता के आधार पर आत्मा के समनस्क और अमनस्क ऐसे दो भेद अवश्य उपलब्ध होते है । इन दोनों भेदों का सम्बन्ध भी विवेकशील मन की उपलब्धि और अनुपलब्धि पर आधारित है। आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से इस अवधारणा को आधार रूप माना जा सकता है क्योंकि जैनदर्शन में आध्यात्मिक विकास का आधार समनस्क होना ही है। जब तक विवेकशील मन २७० - २६६ 'हिनस्त्यनभिसंधातृ न हिनस्त्यभिसंधिमत् । बध्यते तद्वयापेतं चितं बद्धं न मुच्यते ।। ५१ ।।' (क) 'तिपयारो सो अप्पा परमंतर बाहिरो हु देहीणं । तत्थपरोझाइज्जइ अन्तो अंतोवाएण चइवि बहिरप्पा || (ख) अष्टसहस्री पृ. १६७ । ७१ Jain Education International For Private & Personal Use Only - देवागमकारिका । -मोक्षपाहुड ४ । www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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