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________________ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा वेदान्त में आत्मा को कूटस्थ-नित्य तथा अपरिणामी माना है। किन्तु कुमारिलभट्ट जैन दार्शनिकों की तरह आत्मा को परिणामी ही मानते हैं। सांख्यदर्शन द्वारा आत्मा को अपरिणामी मानकर भी उसे औपचारिक रूप से भोक्ता तो मानना ही पड़ा है। जैन दार्शनिकों ने सर्वथा क्षणिक आत्मवाद एवं अपरिणामी कूटस्थ-नित्य आत्मवाद की तीव्र आलोचना की है।४७ आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार यदि आत्मा न स्वयं कर्मों से बंधी है और न स्वयं आत्मा रागादिभाव में परिणमन करती है - ऐसा मानेंगे तो फिर आत्मा अपरिणामी हो जायेगी। रागादिभाव बिना आत्मा के परिणमन नहीं होंगे। अतः संसार का अभाव हो जायेगा। आत्मा के अपरिणामी होने पर कर्म पुद्गल जीव को रागरूप से परिणमित नहीं कर सकेंगे।४८ पुनः यदि आत्मा को अपरिणामी मानेंगे तो पुण्य-पाप की व्यवस्था भी डगमगा जायेगी। अकलंकदेव का कहना है कि शुभाशुभ कर्मों को नहीं करने के कारण आत्मा को शुभाशुभ कर्मों का बन्ध भी नहीं होगा। आत्मा को कूटस्थ-नित्य मानने पर मोक्षादि के अभाव का प्रसंग उपस्थित हो जायेगा।२४६ साथ ही अर्थ के सन्निकर्ष से होने वाले ज्ञान आदि का अभाव हो जायेगा। तब तत्त्वों को न जानने के कारण मोक्ष का भी अभाव होगा।२५० कूटस्थ-नित्य आत्मवाद में समन्तभद्र ने भी उपर्युक्त दोष बताये हैं।२५” इस प्रकार आत्मा को कूटस्थ-नित्य मानेंगे तो अर्थक्रिया नहीं होने पर आत्मा अवस्तु सिद्ध हो जायेगी।५२ 'अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकरूपं नित्यं' सांख्य मतानुसार यदि उत्पत्ति एवं विनाश से रहित होने पर आत्मा नित्य कही जायेगी। जैनदर्शन के अनुसार फिर शुभ-अशुभ कर्म नहीं हो -देवागमकारिका १। २४७ 'कुशलाकुशलम् कर्म परलोकश्च न क्वचित् । एकान्तग्रहरक्तेषु नाथस्वपरवरिषु ।। ८ ।।' २४८ समयसार १२१-२३ । २४६ तत्त्वार्थवार्तिक १/१/५६; १/६/११ । २५० षड्दर्शनसमुच्चय टीका, कारिका ४६ । २५१ 'नित्यत्वैकान्तपक्षेऽपि विक्रिया नोपपद्यते । प्रागेव कारकाभावः क्व प्रमाणं क्व तत्फलम् ।। पुण्यपापक्रिया न स्यात् त्यभावफलं कुतः । बन्धमोक्षौ च तेषां न येषां त्वं नासि नायकः ।।' २५२ स्यादवादमंजरी, कारिका ५ । -देवागम ३/३७/४०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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