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________________ ६० जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा इसलिए आनन्द को आत्मा का ही स्वलक्षण मानना होगा।२२२ जैनदर्शन का उपर्युक्त दृष्टिकोण तर्कसंगत है। भारतीय दर्शनों में न्यायवैशेषिक एवं सांख्य विचारधाराएँ आनन्द या सौख्य को आत्मा का स्वलक्षण नहीं मानतीं। सांख्यदर्शन के अनुसार आनन्द सत्त्वगुण का परिणाम है। अतः वह प्रकृति का ही गुण है - आत्मा का नहीं। न्यायवैशेषिक दर्शन उसे चेतना पर निर्भर तो मानता है, किन्तु वहाँ उसे एक आगन्तुक गुण ही माना गया है। __ इस सम्बन्ध में वेदान्त का दृष्टिकोण जैनदर्शन के समीप है। उसमें ब्रह्म को सत् और चित् के साथ-साथ आनन्दमय भी माना गया है। जैनदर्शन के अनुसार आत्मा अपनी अव्याबाध, अजर-अमर, अविनाशी मुक्तदशा में अनन्तसुख या अनन्तआनन्द की अनुभूति करती है।२२३ (ग) अनन्तवीर्य जैनदर्शन में आत्मा को अनन्तवीर्य से युक्त माना गया है। मनोवैज्ञानिक चेतना का एक पक्ष संकल्पात्मक शक्ति मानते हैं। इसे आत्म-निर्णय की शक्ति भी कह सकते हैं। इस संकल्प-शक्ति को ही जैनदर्शन में वीर्य कहा गया है। आत्म-निर्णय की शक्ति जीवन के लिए उपयोगी है। यदि आत्मा में आत्म-निर्णय की क्षमता (संकल्प-स्वातन्त्र्य) नहीं मानी जायगी तो उसका नैतिक उत्तरदायित्व समाप्त हो जायेगा। क्योंकि नैतिक उत्तरदायित्व संकल्प-स्वातन्त्र्य पर निर्भर होता है और संकल्प-स्वातन्त्र्य के लिए आत्मा में आत्म-निर्णय की शक्ति मानना आवश्यक है। उत्तराध्ययनसूत्र२२४ में जीव (आत्मा) के छ: लक्षणों में वीर्य का भी उल्लेख होता है। इसकी टीकाओं में वीर्य का अर्थ सामर्थ्य २२२ (क) इष्टोपदेश श्लोक २७; (ख) नियमसार तात्पर्यवृत्ति १०२ । २२३ (क) तत्त्वानुशासन १२० । (ख) नियमसार ६३ एवं १८१ । २२४ उत्तराध्ययनसूत्र १८/११ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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