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________________ भारतीय संस्कृति में ध्यान परम्परा काल पर्यन्त चित्तवृत्ति की स्थिति ध्यान तथा द्वादश दिन पर्यन्त चित्तवृत्ति की स्थिति समाधि कही जाती है । बारह दिन पर्यन्त जो चित्तवृत्ति की एकाग्रता रूप समाधि है, वह पूर्ण समाधि है । योगपरम्परा विषयक ब्रह्मविज्ञान नामक ग्रन्थ में त्रिपुटी के विश्लेषण में कहा गया है कि लगातार एक ही विषय को अनन्यमनस्क भाव से देखना धारणा है। धारणा का काल ढाई घंटा रहता है । जब चित्त अबाध गति से एकदेश उपरान्त भी स्थिर रहता है तो ध्यान आरम्भ हो जाता है; जब अनन्य विषयक चित्त छह घंटे तक अबाध गति से स्थिर रहे तो उसकी ध्यान संज्ञा बनती है। इसके आगे समाधि प्रारंभ होती है जिसमें अभ्यासी स्वरूपशून्य हो जाता है और केवल ध्येय अर्थ ही भासित होता है । यह स्थिति बारह घंटे बनी रहे तब उसकी समाधि संज्ञा होती है। 60 यहाँ छह घंटे तक अबाधित गति से ध्यान के रूप में मन के स्थिर रहने का जो कथन किया गया है, वह विचारणीय है । अबाधगति का तात्पर्य यदि यह माना जाय कि ध्यान का सातत्य या नैरन्तर्य छह घंटे तक अविच्छिन्न रूप में बना रहता है तो यह जैनयोग में स्वीकृत ध्यान - काल से संगत नहीं होता क्योंकि वहाँ उसका अनवच्छिन्न काल अन्तर्मुहूर्त माना गया है। अबाधगति का एक तात्पर्य यह भी हो सकता है कि ध्यानयोगी स्वीकृत ध्यान की एक धारा के टूटते ही तत्काल नये रूप में पुनः ध्यान प्रारंभ कर देता है । यों प्रति अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् इस क्रम के चलते रहने में कोई बाधा नहीं आती, बाह्य दृष्टि से वहाँ ध्याता की ध्यान गति अबाधित ही परिलक्षित होती है । अन्तर्वृत्ति सूक्ष्म ध्यान क्रम की भग्नता तो स्वानुभूति गम्य है। यदि मन की चंचलता को दृष्टि में रखते हुए सोचा जाय तो यह संभव नहीं लगता कि बीच-बीच में टूटे बिना छह घंटे तक एकतानता के रूप में ध्यान स्थिति पा सके । किन्तु उत्तरोत्तर टूटते - जुड़ते जाते ध्यान के ताने-बाने के आधार पर वह दीर्घकाल व्यापी भी हो सकता है। साधनाक्रम की दृष्टि से समाधि की दो अवस्थाएँ स्थिर की गयी हैं - सम्प्रज्ञात समाधि और असम्प्रज्ञात समाधि 1 । जिस समाधि के द्वारा संशय विपर्ययादि से रहित 60. ब्रह्मविज्ञान पृ. 878 61. योगसूत्र. 1.17.18 Jain Education International खण्ड : प्रथम 32 Pdf For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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