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________________ खण्ड: अष्टम जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम साधक फिर अपने चिन्तन को इस प्रकार आगे बढ़ाये कि संसार-सागर को पार करने के लिए चारित्र रूपी जहाज में ज्ञानीजन बैठें तो वे उसे पार कर मोक्षनगर तक पहुँच सकते हैं। वह चारित्र रूपी जलयान संसार रूपी समुद्र को तैरने के लिए, उसे पार करने के लिए एक मात्र उपाय है। सम्यक्त्व उस जलयान का अत्यन्त शक्तिशाली बन्धन है। वह जलयान भग्न न हो जाये, टूट न जाये इसके लिए इसमें अठारह सहस्र शीलांग-आचार रूपी काठ के तख्ते लगे हैं। ज्ञान रूपी निर्यामक-समुद्र के मार्ग के ज्ञाता पुरुष उसमें संलग्न हैं। 57 भेद युक्त संवर द्वारा आस्रवस्रोत बन्द कर दिये गये हैं, जिससे नूतन कर्मरूपी जल उसमें प्रवेश नहीं कर पा रहा है। समस्त दिशा-विदिशाओं में मनोगुप्ति आदि तीन गुप्तियों से वह सुरक्षित है, जिससे वह जलयान शीघ्रतापूर्वक गतिशील हो आगे बढ़ रहा है। वह ज्ञानाचार आदि आचार रूपी मण्डपों तथा विश्रामस्थलों से विभूषित है। उस जलयान की अपवाद एवं उत्सर्ग मार्ग रूपी दो मंजिलें हैं। उसमें शुभ अध्यवसाय रूपी योद्धा नियुक्त हैं जो दुस्सह मोह रूपी शत्रुओं से भी रोके नहीं जा सकते। द्वादश प्रकार के तपश्चरण रूपी अनुकूल वायु से कर्म रूपी रज का हरण किये जाने से उत्पन्न संवेग, मोक्षाभिलाष रूप उपाय में प्रवृत्त होने से संसार के प्रति औदासीन्य रूप मार्ग में प्रवृत्त, चारित्र रूपी जलयान में बैठे हुए पुरुष जगत् के जीवों के लिए हितैषी होने हेतु शुभ, अनित्यादि भावना रूपी बड़ी-बड़ी पेटियों में रक्षा हेतु प्रयत्न पूर्वक शुभ मन रूपी रत्नों को रखे हुए निर्विघ्नता पूर्वक मुक्ति रूपी नगर को प्राप्त करते हैं।10 आलंकारिक भाषा में लोक-संस्थान के ध्यान का यह बड़ा ही सुन्दर और उद्बोधक रूप है। लोक को रूपक अलंकार द्वारा दुस्तर समुद्र के रूप में आरोपित कर चारित्र रूपी जलयान द्वारा उसे पार करने का जो सांगोपांग विवेचन किया गया है, वह काव्यशास्त्र के अनुसार सांगरूपक का अत्यन्त सुन्दर उदाहरण है। समुद्र की विकरालता, भयानकता साधक को पापपूर्ण जीवन से हटाकर धर्मानुप्राणित ध्यानसाधनाजीवन की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा प्रदान करता है। तत्पश्चात् विद्वान् ग्रन्थकार ने रूपक के माध्यम से धर्मराज और मोहराज के युद्ध का चित्रण किया है। क्योंकि मोह को जीते बिना ध्यानसाधना में सफलतापूर्वक आगे बढ़ना बहुत ही कठिन है। 10. वही, गा. 46-50 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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