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________________ खण्ड : सप्तम मन के भेद : ध्यान के संदर्भ में विक्षिप्त, यातायात, श्लिष्ट और सुलीन के रूप में मन चार प्रकार का है। इनको जानना चित्तविशुद्धि में अत्यन्त उपयोगी है। जो चित्त चंचलता लिये रहता है उसे विक्षिप्त कहा गया है। वह इधर-उधर क्षेपयुक्त रहता है, भटकता रहता है। यातायात मन कुछ इष्ट प्रीतिकर आनन्दप्रद होता है । वह कभी बाहर जाता है कभी अन्तः प्रविष्ट होता है। ध्यान के प्राथमिक या प्रारंभिक अभ्यासी जनों में चित्त की ये दोनों स्थितियाँ होती हैं। जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम इसका आशय यह है कि चित्त सर्वप्रथम चंचलता लिये रहता है किन्तु उसे सुस्थिर बनाने का ज्यों-ज्यों अभ्यास किया जाता है, तब उसमें चंचलता के साथ कुछ स्थिरता भी समाविष्ट होने लगती है। इन दोनों मानसिक स्थितियों में चैतसिक विकल्पों के साथ बाह्य पदार्थ भी गृहीत होते रहते हैं। 117 जो मन स्थिर तथा स्थिरता के परिणामस्वरूप आनन्दमय बन जाता है, उसे श्लिष्ट कहा जाता है । वहाँ चित्त जब अत्यन्त स्थिर हो जाता है तो वह परमानन्दमयी अवस्था पा लेता है, उसकी सुलीन संज्ञा है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि जैसे-जैसे क्रमशः चित्त की स्थिरता बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे आन्तरिक आनन्द की मात्रा भी वृद्धिंगत हो जाती है । क्रमशः अभ्यास को आगे बढ़ाता हुआ ध्यानयोगी विक्षिप्त से यातायात, यातायात से श्लिष्ट और श्लिष्ट से सुलीन चित्त की भूमि का संस्पर्श करे । इसके परिणामस्वरूप निरालंबन ध्यान की सिद्धी होती है। वैसा होने पर अन्तरात्मा में समरस भाव का अभ्युदय और परमानन्द का अनुभव होता है। साधक को चाहिए कि वह ध्यानाभ्यास में अग्रसर होकर बहिरात्म भाव का परित्याग कर अन्तरात्म भाव में होता हुआ परमात्म भाव का चिन्तन करे, अनुभव करे | 118 आचार्य हेमचन्द्र ने अपने ग्रन्थ के प्रारम्भिक भाग में साधक के लिए आचारमूलक धर्म का निरूपण किया है क्योंकि जो अपने दैनंदिन आचरण को पवित्र, 117. वही, 12.2-3 118. वही, 12.4-6 Jain Education International 51 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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