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________________ जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम क्योंकि वह मन में ऐसा भाव लिये रहता है कि उसके जीवन का धागा न जाने कब टूट जाय । इसलिए प्राप्तकाल में उसे योग साधने के प्रयत्न में सदा समुद्यत रहना चाहिए, जिससे देवदुर्लभ मानवजीवन की सफलता सिद्ध हो सके। ऐसा भावानुभावन उसको ध्यान के साथ संयुक्त होने में संबल प्रदान करता है । इस प्रसंग में महाभारत के एक प्रसंग का उल्लेख करना उपयोगी होगा। महाभारतकार व्यास ने मृत्यु से सदा अनजान रहने वाले मानव को उद्बोधित करने हेतु एक प्रसंग का उल्लेख किया है। खण्ड : सप्तम पाण्डव द्रौपदी के साथ वनवास में थे । घूमते-घूमते सबको बहुत प्यास लगी । जल की खोज में सबसे छोटा भाई सहदेव निकला। एक सरोवर के पास पहुँचा । ज्योंही वह जल लेने लगा, सरोवर के अधिष्ठाता यक्ष की आवाज आयी। मेरे प्रश्न का उत्तर दिये वगैर जल मत लेना । सहदेव ने उस पर कुछ गौर नहीं किया ज्योंही जल भरने लगा - मूर्च्छित होकर मृतवत् गिर पड़ा। उसके आने में विलम्ब देखकर क्रमशः नकुल, अर्जुन और भीम भी पहुँचे। सबकी वही दशा हुई । अन्त में युधिष्ठिर पहुँचे। यक्ष द्वारा आवाज लगायी जाने पर उसने कहा कहो, आपका क्या प्रश्न है ? यक्ष ने कहाकिमाश्चर्यमतः परम् ! इससे बड़ा आश्चर्य क्या है ? अर्थात् संसार में सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है ? उत्तर दो । युधिष्ठिर ने निम्नांकित रूप में उसका उत्तर दिया अहन्यहनि भूतानि गच्छन्ति यममन्दिरम् । शेषाः जीवितुमिच्छन्ति, किमाश्चर्यमतः परम् ॥ दिन-प्रतिदिन प्राणी यमराज के गृह में जा रहे हैं। लोग यह सब देखते हैं किन्तु वे यही सोचते हैं, चाहते हैं कि वे सदा जीवित रहें । जगत् में इससे बड़ा आश्चर्य क्या है । यक्ष के कुछ और भी प्रश्न थे, जिनका युधिष्ठिर ने समाधान किया। उनमें यहाँ उल्लिखित प्रश्न और समाधान इसी आशय का द्योतक है 15 जो आचार्य हेमचन्द्र ने अशरण भावना में व्याख्यात किया है। इसे आश्चर्य नहीं तो क्या कहा जाय कि मरण के रूप में विद्यमान शाश्वत सत्य को भी मानव हृदयंगम नहीं कर पाता । यदि वह सोच ले कि मृत्यु से उसे त्राण देने में कोई भी समर्थ नहीं है तो उसकी विपथगामिता, ' आत्मपराङ्मुखता सहज ही नष्ट हो सकती है। 15. महाभारत Jain Education International 11 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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