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________________ खण्ड : तृतीय जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम से पूर्व की रचना होने के कारण सम्भव है इन गाथाओं का उपयोग दोनों ही परम्परा के आचार्यों ने प्रसंगानुसार अपनी रचनाओं में समानरूप से किया हो। इससे इस ग्रंथ की मौलिकता में कोई बाधा उपस्थित नहीं होती। ध्यान भी श्रमण - साधना का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। वह निर्जरा के बारह भेदों के अन्तर्गत है। आचार्य वट्टकेर ने निर्जरा के विवेचन के प्रसंग में ध्यान का वर्णन किया है। __उन्होंने सबसे पहले आर्त्त-रौद्र ध्यान की चर्चा की है, उनके भेदों का उल्लेख किया है।17 ___ आगे उन्होंने कहा है कि ये दोनों ध्यान भयोत्पादक हैं, उत्तम गति में प्रत्यूहविघ्न रूप हैं। इनका परित्याग कर धर्मध्यान और शुक्लध्यान को सम्यक् रूप में स्वीकार करना चाहिए।18 इसके पश्चात् इन्होंने धर्मध्यान के चारों भेदों का निरूपण किया है। आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थानविचय संज्ञक भेदों का पृथक् - पृथक् विवेचन करते हुए इनकी विशेषताओं तथा आत्मशुद्धि मूलक निष्पत्तियों का उल्लेख किया है। साथ ही साथ ध्यान की परिभाषा हेतु अनुप्रेक्षाओं के अभ्यास का भी निर्देश किया है।19 तदनन्तर उन्होंने शुक्लध्यान के स्वरूप और भेदों का आख्यान किया है जो आत्मा के विशुद्ध स्वरूप के साथ संपृक्त है।20 ध्यान की सुदृढ़ता और स्थिरता का संसूचन करते हुए ग्रंथकार ने प्रसंगोपात्ततया लिखा है कि जैसे गिरिराज मेरु पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण दिशाओं से आती हुई वायु से प्रचालित नहीं होता, उसी प्रकार योगी नाना उपसर्गों के आने पर भी अकम्प भाव से निरन्तर ध्यान में निरत रहे।21 17. मूलाचार 5.197 - 199 पृ. 253 - 256 18. वही, 5.200 पृ. 257 19. वही, 5.201-206 पृ. 257-260 20. वही, 5.207-208 पृ. 261-262 21. वही, 9.118 पृ. 497 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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