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________________ गुजरात काठियावाड़ में जैन धर्म अन्य राजवंश - उक्त राजवंशों के अतिरिक्त दक्षिण के अनेक छोटे-मोटे राजघरानों द्वारा भी जैनधर्म को खूब बल मिला। उदाहरणार्थ, कर्नाटक के तीर्थहल्लि तालुका व उसके आसपास के प्रदेश पर राज्य करनेवाले सान्तर नरेशों ने प्रारम्भ से ही जैन धर्म को खूब अपनाया । भुजबल सान्तर ने अपनी राजधानी पोम्बुर्चा में एक जैनमंदिर बनवाया व अपने गुरु कनकनंदिदेव को उस मंदिर के संरक्षणार्थ एक ग्राम का दान दिया। वीर सान्तर के मंत्री नगुलरस को ई० सन् १०८१ के एक शिलालेख में जैनधर्म का गढ़ कहा गया है । स्वयं वीर सान्तर को एक लेख में जिनभगवान् के चरणों का भृंग कहा गया है । तेरहवीं शताब्दी में सान्तरनरेशों के वीरशैव धर्म स्वीकार कर लेने पर उनके राज्य में जैनधर्म की प्रगति व प्रभाव कुछ कम अवश्य हो गया, तथापि सान्तर वंशी नरेश शैवधर्मावलंबी होते हुए भी जैनधर्म के प्रति श्रद्धालु और दानशील बने रहे । उसी प्रकार मैसूर प्रदेशान्तगर्त कुर्ग व उसके आसपास राज्य करनेवाले कांगल्व नरेशों ने ग्याहरवीं व बाहरवीं शताब्दियों में अनेक जैनमंदिर बनवाये और उन्हें दान दिये | चांगल्व नरेश शैवधर्मावलंबी होते हुए भी जैनधर्म के बड़े उपकारी थे, यह उनके कुछ शिलालेखों से सिद्ध होता है जिनमें उनके द्वारा जैनमंदिर बनवाने व दान देने के उल्लेख मिलते हैं । इन राजाओं के अतिरिक्त अनेक ऐसे वैयक्तिक सामन्तों; मंत्रियों, सेनापतियों तथा सेठ साहूकारों के नाम शिलालेखों में मिलते हैं, जिन्होंने नाना स्थानों पर जैनमंदिर बनवाये, जनमूर्तियाँ प्रतिठित कराई, पूजा अर्चा की; तथा धर्म की बहुविध प्रभावना के लिये विविध प्रकार के दान दिये । इतना ही नहीं, किन्तु उन्होंने अपने जीवन के अन्त में वैराग्य धारण कर जैनविधि से समाधिमरण किया । दक्षिण प्रदेश भर में जो आजतक भी अनेक जैनमंदिर व मूर्तियां अथवा उनके ध्वंसावशेष बिखरे पड़े हैं, उनसे भले प्रकार सिद्ध होता है कि यह धर्म वहां कितना सुप्रचलित और लोकप्रिय रहा, एवं राजगृहों से लगाकर जनसाधारण तक के गृहों में प्रविष्ट हो, उनके जीवन को नैतिक, दानशील तथा लोकोपकारोन्मुख बनाता रहा । गुजरात-काठियावाड़ में जैनधर्म- ई० सन् की प्रथम शताब्दी के लगभग काठियावाड़ में भी एक जैन केन्द्र सुप्रतिष्ठित हुआ पाया जाता है । षट्खंडागम सूत्रों की रचना का जो इतिहास उसके टीकाकार वीरसेनाचार्य ने दिया है, उसके अनुसार वीर निर्वाण से ६८३ वर्ष की श्रुतज्ञानी आचार्यों की अविच्छिन्न परम्परा के कुछ काल पश्चात् धरसेनाचार्य हुए, जो गिरीनगर (गिरिनार, काठियावाड़) की चन्द्र Jain Education International ४१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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