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________________ ३४६ जैन कला गई हैं । बायीं ओर चतुर्भज विष्णु की मूर्ति हैं, जिनके ऊपर के दाहिने हाथ में गदा व बाएं हाथ में चक्र हैं । तीथंकर की मूर्ति के ऊपर वेतस-पत्रों का खुदाव है। समवायांग सूत्र के अनुसार वेतस नेमिनाथ का बोधिवृक्ष है। हिन्दू पुराणानुसार बलराम शेषनाग के अवतार माने गये हैं। इस प्रकार की, ऐसे ही बलराम और वासुदेव की प्रतिमाओं से अंकित, और भी अनेक मतियां पाई गई हैं, (जैन एन्टी० भाग २, पृष्ठ ६१)। ऐसी ही एक और प्रतिमा (२४८८) है, जिसमें तीर्थकर के दाहिनी ओर फणायुक्त नाग हाथ जोड़े खड़ा है। यह भी बलराम उपासक सहित नेमिनाथ की मूर्ति मानी गई हैं। नेमिनाथ की मूर्ति के साथ वासुदेव और बलभद्र के सम्बद्ध होने का उल्लेख समन्तभद्र ने अपने वृहत्स्वयम्भूस्तोत्र में किया है । नेमिनाथ की स्तुति करते हुए वे कहते हैं : धतिमद्-रथांग-रविविम्बकिरण-जटिलांशुमंडल:। नील-जलजदलराशि-वपुःसहबन्धुभिर्गरुडकेतुरीश्वरः ॥ हलभृच्च ते स्वजनभक्तिमुदितहृदयौ जनेश्वरौ । धर्मविनय-रसिकौ सुतरां चरणारविंद-युगलं प्ररणेमतुः ।। १२६ ।। अर्थात् चक्रधारी गरुडकेतु (वासुदेव) और हलधर, ये दोनों भ्राता प्रसन्नचित्त होकर विनय से आपकी वन्दना करते हैं। गुप्तकालीन जैन मूर्तियां-- ___ कुषाणकाल के पश्चात् अब हम गुप्तकालीन तीर्थंकर प्रतिमाओं की ओर ध्यान दें। यह युग ईसा की चौथी शती से प्रारम्भ होता है। इस युग की ३७ प्रतिमाओं का परिचय उक्त मथुरा संग्रहालय की सूची में कराया गया है । उस पर से इस युग की निम्न विशेषतायें ज्ञात होती है । तीर्थकर मूर्तियों के सामान्य लक्षण तो वे ही पाये जाते हैं जो कुषाणकाल में विकसित हो चुके थे, किन्तु उनके परिकरों में अब कुछ वैशिष्ट्य दिखाई देता है। प्रतिमाओं का उष्णीष कुछ अधिक सौन्दर्य व घुघरालेपन को लिये हुए पाया जाता है । प्रभावल में विशेष सजावट दिखाई देती है (बी १, बी ६, आदि) धर्मचक व उसके उपासकों का चित्रण पूर्ववत् होते हुए कहीं-कहीं उसके पावों में मृग भी उत्कीर्ण दिखाई देते हैं । बौद्ध मूर्तियों में इस प्रकार मृगों का चित्रण बुद्ध भगवान् के सारनाथ के मृगदाव में प्रथम बार धर्मोपदेश का प्रतीक माना गया है। सम्भव है यहां भी उसी अलंकरण शैली ने स्थान पा लिया हो। आगे चलकर हम मृग को शान्तिनाथ भगवान का विशेष चिन्ह स्वीकृत पाते हैं । इस प्रकार की एक प्रतिमा (बी ७५) के सिंहासन पर एक पार्श्व में अपनी थैली Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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