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________________ जैन गुफाएं ३११ तिक गुफाओं को अपना निवासस्थान बना लेते थे। उस अपेक्षा से यह गुफा भी ई० पू० काल से ही जैन मुनियों की गुफा रही होगी। किन्तु इसका संस्कार गुप्तकाल में जैसा कि वहां के स्तम्भों आदि की कला तथा गुफा में खुदे हुए एक लेख से सिद्ध होता है । इस लेख में चन्द्रगुप्त का उल्लेख है । जिससे गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय का अभिप्राय समझा जाता है। और जिससे उसका काल चौथी शती का अंतिम भाग सिद्ध होता है। पूर्व दिशावर्ती बीसवीं गुफा में पार्श्वनाथ तीर्थंकर की अतिभव्य मूर्ति विरामान है। यह अब बहुत कुछ खंडित हो गई है, किन्तु उसका नाग-फण अब भी उसकी कलाकृति को प्रकट कर रहा है। यहां भी एक संस्कृत पद्यात्मक लेख खुदा हुआ है, जिसके अनुसार इस मूर्ति की प्रतिष्ठा गुप्त संवत् १०६ (ई० सन् ४२६, कुमारगुप्त काल) में कार्तिक कृष्ण पंचमी को आचार्य भद्रान्वयी आचार्य गोशर्म मुनि के शिष्य शंकर द्वारा की गई थी। इन शंकर ने अपना जन्मस्थान उत्तर भारतवर्ती कुरुदेश बतलाया है । जैन ऐतिहासिक परम्परानुसार अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त के काल (ई०पू० चौथी शती) में हुए थे, और उत्तर भारत में बारह वर्ष का घोर दुर्भिक्ष पड़ने पर जैन संघ को लेकर दक्षिण भारत में गये, तथा मैसूर प्रदेशान्तर्गत श्रवणबेलगोला नामक स्थान पर उन्होंने जैन केन्द्र स्थापित किया। इस समय भारत सम्राट चन्द्रगुप्त भी राज्यपाट त्यागकर उनके शिष्य हो गये थे, और उन्होंने भी श्रवणबेलगोला की उस पहाड़ी पर तपस्या की, जो उनके नाम से ही चन्द्रगिरि कहलाई। इस पहाड़ी पर प्राचीन मंदिर भी है, जो उन्हीं के नाम से चन्द्रगुप्त बस्ति कहलाता है । इसी पहाड़ी पर एक अत्यन्त साधारण व छोटी सी गुफा है, जो भद्रबाहु की गुफा के नाम से प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी ने इसी गुफा में देहोत्सर्ग किया था। वहाँ उनके चरण-चिन्ह अंकित हैं और पूजे जाते हैं। दक्षिण भारत में यही सबसे प्राचीन जैन गुफा सिद्ध होती है । ____ महाराष्ट्र प्रदेश में उस्मानाबाद से पूर्वोत्तर दिशा में लगभग १२ मील की दूरी पर पर्वत में एक प्राचीन गुफा-समूह है । वे एक पहाड़ी दरें के दोनों पाश्वों में स्थित है; चार उत्तर की ओर व तीन दूसरे पार्श्व में पूर्वोत्तरमुखी। इन गुफाओं में मुख्य व विशाल गुफा उत्तर की गुफाओं में दूसरी है। दुर्भाग्यतः इसकी अपरी चट्टान भग्न होकर गिर पड़ी है। केवल कुछ बाहरी भाग नष्ट होने से बचा है । उसकी हाल में मरम्मत भी की गई है। इसका बाहरी बरामदा ७८x१०.४, फुट है। इसमें छह या आठ खंभे हैं, और भीतर जाने के लिये पांच द्वार । भीतर की शाला ८० फुट गहरी है, तथा चौड़ाई में द्वार की ओर ७६ फुट व पीछे की ओर ८५ फुट है। इसकी छत ३२ स्तम्भों पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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