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________________ २६६ होती हैं, जिनके दोनों ओर वेदिकाएं बनी रहती हैं। तत्पचात् बाहिरी धूलिशाल नामक कोट बना रहता हैं, जिसकी पूर्वादिक चारों दिशाओं में विजय, वैजयंत, जयन्त और अपराजित नामक गोपुरद्वार होते हैं । ये गोपुर तीन भूमियों वाले व अट्टालिकाओं से रमणीक होते हैं, और उनके बाह्य, मध्य व आभ्यन्तर पार्श्व भागों में मंगल द्रव्य, निधि, व धूपघटों से युक्त बड़ी-बड़ी पुतलियां बनी रहती हैं । अष्ठ मंगलद्रव्य भवनों के प्रकरण में ( पृ०२६२) गिनाये जा चुके हैं । नव निधियों के नाम हैं-काल, महाकाल, पांडु, माणवक, शंख, पद्म, नेसर्प, पिंगल, और नाना रत्न, जो क्रमशः ऋतुओं के अनुकूल माल्यादिक नाना द्रव्य, भाजन, धान्य, आयुध, वादित्र, वस्त्र, महल, आभरण और रत्न प्रदान करने की शक्ति रखती हैं । गोपुरों के बाह्य भाग में मकर- तोरण तथा आभ्यन्तर भाग में रत्नतोरणों की रचना होती हैं, और मध्य के दोनों पावों में एक-एक नाट्यशाला इन गोपुरों का व्दारपाल ज्योतिष्क देव होता हैं, जो अपने हाथ में रत्नदंड धारण किये रहता है। कोट के भीतर जाने पर एक-एक जिनभवन के अन्तराल से पांच-पांच चंत्य प्रासाद मिलते हैं, जो उपवन और वापिकाओं से शोभायमान हैं, तथा वीथियों के दोनों पार्श्वभागों में दो-दो नाट्यशालाएं शरीराकृति से १२ गुनी ऊंची होती हैं। एक-एक नाट्यशाला में ३२ रंगभूमियां ऐसी होती हैं जिनमें प्रत्येक पर ३२ भवनवासी कन्याएं अभिनय य नृत्य कर सकें । जैन कला मानस्तंभ । atथियों के बीचोंबीच एक-एक मानस्तंभ स्थापित होता है । यह आकार में गोल, और चार गोपुरद्वारों तथा ध्वजापताकाओं से युक्त एक कोट से घिरा होता हैं । इसके चारों ओर सुन्दर वनखंड होते हैं, जिनमें पूर्वादिक दिशाक्रम से सोम, यम, वरुण और कुवेर, इन लोकपालों के रमणीक क्रीड़ानगर होते हैं । मानस्तंभ क्रमशः छोटे होते हुए तीन गोलाकार पीठों पर स्थापित होता है । मानस्तंभ की ऊंचाई तीर्थंकर की शारीराकृति से १२ गुनी बतलाई गई मानस्तंभ तीन खंडों में विभाजित होता है । इसका मूल भाग वज्रद्वारों से युक्त मध्यम भाग स्फटिक मणिमय वृत्ताकार तथा उपरिम भाग वेडूर्य मणिमय होता हैं; और उसके चारों ओर चंवर, घंटा, किंकिणी, रत्नहार व ध्वजाओं की शोभा होती है । मानस्तंभ के शिखर पर चारों दिशाओं में आठ-आठ प्रातिहार्यों से युक्त एक-एक जिनेन्द्र - प्रतिमा विराजमान होती हैं। प्रातिहायों के नाम हैं - अशोकवृक्ष, दिव्य पुष्पवृष्टि, दिव्यध्वनि, चामर, आसन, भामंडल, दुन्दुभि और आतपत्र । प्रत्येक मानस्तंभ की पूर्वादिक चारों दिशाओं में एक-एक वापिका होती है । पूर्वादि दिशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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