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________________ २८२ जैन कला अधिक सन्तुष्टि का अनुभव करता है । आदि में उसने शीत, धूप आदि से रक्षा के लिये जिन वल्कल, मृगछाला आदि शरीराच्छादनों को ग्रहण किया, उनमें क्रमशः परिष्कार करते-करते नाना प्रकार के सूती, ऊनी व रेशमी वस्त्रों का अविष्कार किया, और उन्हें नाना रीतियों से काटछांटकर व सीकर सुन्दर वेष-भूषा का निर्माण किया है। किन्तु जिन बातों में मनुष्य की सौदर्योपासना चरम सीमा को पहुंची है, और मानवीय सभ्यता के विकास में विशेष सहायक हुई हैं, वे हैं--गृहनिर्माण, मूर्तिनिर्माण, चित्रनिर्माण तथा संगीत और काव्य कृतियां । इन पांचों कलाओं का प्रारम्भ उनके जीवन के लिये उपयोग की दृष्टि से ही हुआ। मनुष्य ने प्राकृतिक गुफाओं आदि में रहते-रहते क्रमशः अपने आश्रय के लिये लकड़ी, मिट्टी, व पत्थर के घर बनाये; अपने पूर्वजों की स्मृति रखने के लिये प्रारम्भ में निराकार और फिर साकार पाषाण आदि की स्थापना की; अपने अनुभवों की स्मृति के लिये रेखाचित्र खींचे; अपने बच्चों को सुलाने व उनका मन बहलाने के लिये गीत गाये व किस्से कहानी सुनाये। किन्तु इन प्रवृत्तियों में उसने उत्तरोत्तर ऐसा परिष्कार किया कि कालान्तर में उनके भौतिक उपयोग की अपेक्षा, उनका सौन्दर्यपक्ष अधिक प्रबल और प्रधान हो गया, और इस प्रकार उन उपयोगी कलाओं ने ललित कलाओं का रुप धारण कर लिया, और किसी भी देश व समाज की सभ्यता व संस्कृति केये ही अनिवार्य प्रतीक माने जाने लगे । भिन्न-भिन्न देशों, समाजों, व धर्मों के इतिहास को पूर्णता से समझने के लिये उनके आश्रय में इन कलाओं के विकास का इतिहास जानना आवश्यक प्रतीत होता है। ऊपर जो कुछ कहा गया उससे स्पष्ट हो जाता है कि कला की मौलिक प्रेरणा, मनुष्य की जिज्ञासा के समान, सौन्दर्य की इच्छारूप उसकी स्वाभाविक वृत्ति से ही मिलती है । इसलिये कहा जा सकता है कि कला का ध्येय कला ही है । तथापि उक्त प्राकृतिक सौन्दर्य-वत्ति ने अपनी अभिव्यक्ति के लिये जिन आलम्बनों को ग्रहण किया है, उनके प्रकाश में यह भी कहा जा सकता हैं कि कला का ध्येय जीवन का उत्कर्ष हैं। यह बात सामान्यतः भारतीय, । और विशेष रुप से जैन कला-कृतियों के अध्ययन से स्पष्ट हो जाती है । यहां का कलाकार कभी प्रकृति के जैसे के तैसे प्रतिबिम्ब मात्र से सन्तुष्ट नहीं हुआ। उसका सदैव यह प्रयत्न रहा है कि उसकी कलाकति के द्वारा मनुष्य की भावना का परिष्कार व उत्कर्षण हो । उसकी कृति में कुछ न कुछ व कहीं न कहीं धर्म व नीति का उपदेश छुपा या प्रकट रहता ही है। यही कारण है कि यहाँ की प्रायः समस्त कलाकृतियां धर्म के अंचल में पली और पुष्ट हुई है । यूनान के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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