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________________ मोक्ष का मार्ग २४१ सर्व परवश दुःख सर्वमात्मवश सुखम् । एतद् विद्यात् समासेन लक्षणं सुख-दुःखयोः ॥ (मनु. ४,१६०) जो कुछ पराधीन है वह सब अन्ततः दुखदायी है; और जो कुछ स्वाधीन है वही सच्चा सुखदायी सिद्ध होता है । मोक्ष का मार्ग जैनधर्म में मोक्ष की प्राप्ति का उपाय शुद्ध दर्शन, ज्ञान और चारित्र को बतलाया गया है । तस्वार्थशास्त्र का प्रथम सूत्र है-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । इन्हीं तीन को रत्नत्रय माना गया है; और धर्म का स्वरूप इसी रत्नत्रय के भीतर गभित है। धर्म के ये तीन अंग अन्ततः वैदिक परम्परा में भी श्रद्धा या भक्ति, ज्ञान और कर्म के नाम से स्वीकार किये गये हैं। मनुस्मृति में वहीं धर्म प्रतिपादित करने की प्रतिज्ञा की गई है जिसका सेवन व अनुज्ञापन सच्चे (सम्यग्दृष्टि) विद्वान (ज्ञानी) राग-द्वेष-रहित (सच्चारित्रवान) महापुरुषों ने किया है । भगवद्गीता में भी स्वीकार किया गया है कि श्रद्धावान ही ज्ञान प्राप्त करता और तत्पश्चात् ही वह संयमी बनता है । यथा विद्भिः सेवितः सद्भिनित्यमद्वेषरागिभिः : हृदयेनाभ्यनुज्ञातो यो धर्मस्तन्निबोधत ॥ (मनु २. १) श्रद्धावान लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः (भ.गी. ४, ३६) दर्शन के अनेक अर्थ होते हैं, जिनका उल्लेख पहले किया जा चुका है। मोक्षमार्ग में प्रवत्त होने के लिये जो पहला पग सम्यग्दर्शन कहा गया है, उसका अर्थ है ऐसी दृष्टि की प्राप्ति जिसके द्वारा शास्त्रोक्त तत्वों के स्वरूप में सच्चा श्रद्धान उत्पन्न हो । इस सच्ची धार्मिक दृष्टि का मूल है अपनी आत्मा की शरीर से पृथक सत्ता का भान । जब तक यह भान नहीं होता, तब तक जीव मिथ्यात्वी है । इस मिथ्यात्व से छुटकर आत्मबोध रूप सम्यक्त्व का प्रादुर्भाव, जीव का प्रन्थि-भेद कहा गया है, जो सांसारिक प्रवाह में कभी किसी समय विविध कारणों से सिद्ध हो जाता है । किन्हीं जीवों को यह अकस्मात् घर्षणघोलन-न्याय से प्राप्त हो जाता है। जिस प्रकार कि प्रवाह-पतित पाषाण खंडों को परस्पर घिसते-पिसते रहने से नाना विशेष आकार, यहां तक कि देवमूर्ति का स्वरूप भी, प्राप्त हो जाता है। किन्हीं जीवों को किसी विशेष अवस्था में पूर्व का जन्म स्मरण हो आता है; और उससे उन्हें सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाता है। किन्हीं जीवों को किसी विशेष अवस्था Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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