SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 277
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७२ पञ्चाशकप्रकरणम् प्रेष्यैः । वर्जयति स्वयमारम्भं सावद्यं कारयति पूर्वप्रयोगत एव वृत्तिनिमित्तं शिथिलभावः ।। २६ ।। आठवीं प्रतिमा वाला श्रावक खेती आदि आरम्भयुक्त कार्य स्वयं छोड़ देता है। ऐसे काम वह नौकरों से करवाता है। उसमें भी प्रतिमा स्वीकार करने के पहले आजीविका का जो साधन था, उसे ही आजीविका के निमित्त उदासीन भाव से कराता है ।। २६ ।। स्वयं आरम्भ न करें और नौकरों से करायें तो क्या लाभ ? निग्घिणतेगंतेणं एवंवि हु होइ चेव परिचत्ता । हमेत्तोऽवि इमो वज्जिज्जतो हियकरो उ ।। २७ ।। भव्वस्साणावीरिय - संफासणभावतो णिओगेणं । पुव्वोइयगुणजुत्तो ता वज्जति अट्ठ जा मासा ॥ २८ ॥ निर्घृणतैकान्तेन एवमपि खलु भवति चैव मात्रोऽपि अयं वर्ज्यमानः [ दशम परित्यक्ता । हितकरस्तु ।। २७ । भव्यस्याज्ञावीर्य-संस्पर्शनभावात् नियोगेन । पूर्वोदित - गुणयुक्तस्तावद् वर्जयति अष्ट यावन्मासान् ।। २८ ।। स्वयं आरम्भ करने और दूसरों से आरम्भ करवाने इन दोनों में क्रूरता तो है, किन्तु स्वयं आरम्भ न करने से जितनी कम हिंसा होगी उतनी तो हितकर होती ही है। अब प्रश्न यह उठता है कि स्वयं तो आरम्भ थोड़ा करते हैं, किन्तु दूसरों से करवाते हैं तो उसमें अधिक हिंसा होती है, क्योंकि हिंसा करने वाले बहुत हैं। तो अपनी थोड़ी हिंसा का त्याग करके औरों से अधिक हिंसा करवाना कहाँ तक समीचीन है ? उत्तर : स्वयं की थोड़ी सी हिंसा का त्याग भी हितकर ही है। जिस प्रकार भयानक रोग से ग्रसित व्यक्ति का रोग थोड़ा-सा कम हो जाये तो भी उसके लिए हितकर ही होता है। Jain Education International इसके दो कारण हैं.. • एक तो हिंसात्याग रूप जिनाज्ञा का पालन और दूसरा हिंसात्याग में अपनी आन्तरिक सामर्थ्य । अतः इन दोनों का पालन अवश्य होता है। पहले की सात प्रतिमाओं से युक्त श्रावक आठवीं प्रतिमा में उत्कृष्टतापूर्वक आठ महीने तक स्वयं आरम्भ का त्याग करता है ।। २७-२८ ।। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy