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________________ षष्ठ ] स्तवविधि पञ्चाशक १०७ पढमाउ कुसलबंधो तस्स विवागेण सुगइमादीया । तत्तो परंपराए बितिओऽवि हु होइ कालेणं ।। २३ ।। अशुभतरण्डोत्तरणप्रायो द्रव्यस्तव असमाप्तश्च । नद्यादिषु इतरः पुनः समाप्तबाहूत्तरणकल्प: ।। २१ ।। कटुकौषधादियोगाद् मन्थररोगशमसन्निभो वापि । प्रथमो विनौषधेन तत्क्षयतुल्यश्च द्वितीयस्तु ।। २२ ।। प्रथमात् कुशलबन्धः तस्य विपाकेन सुगत्यादयः । ततः परम्परया द्वितीयोऽपि खलु भवति कालेन ।। २३ ।। द्रव्यस्तव किंचित सावध होने से नदी आदि में पतवार से नाव खेकर पार जाने की क्रिया के समान सापेक्ष है और मोक्ष के लिए भावस्तव की अपेक्षा रखने वाला होने के कारण अपूर्ण है, जबकि भावस्तव आत्मपरिणामरूप होने के कारण बाह्यद्रव्य की अपेक्षा से रहित होने के कारण नदी आदि में हाथ से तैरकर पार जाने की क्रिया के समान निरपेक्ष है और द्रव्यस्तव की अपेक्षा से रहित मोक्ष का कारण होने से पूर्ण है ।। २१ ।। द्रव्यस्तव बाह्यद्रव्यों की अपेक्षा रखने वाला होने के कारण कड़वी औषधि आदि से दीर्घकालीन रोग के उपशमित हो जाने के समान है, जबकि भावस्तव औषधि के बिना ही उस रोग के निर्मूल नष्ट हो जाने के समान है ॥ २२ ॥ द्रव्यस्तव से पुण्यानुबन्धी पुण्यकर्म का बन्ध होता है, उसके उदय से सुगति, शुभसत्व आदि मिलता है। उसके बाद परम्परा से थोड़े समय के बाद भावस्तव का योग भी मिलता है । भावस्तव की महत्ता चरणपडिवत्तिरूवो थोयव्वोचियपवित्तिओ गुरुओ । संपुण्णाणाकरणं कयकिच्चे हंदि उचियं तु ।। २४ ।। चरणप्रतिपत्तिरूपः स्तोतव्योचितप्रवृत्तितो गुरुकः । सम्पूर्णाज्ञाकरणं कृतकृत्ये हंदि उचितं तु ।। २४ ।। चारित्र की स्वीकृतिरूप भावस्तव वीतराग भगवान् से सम्बन्धित उचित प्रवृत्ति होने के कारण महान् है। वस्तुत: वीतराग की सम्पूर्ण आज्ञा का पालन ही उचित प्रवृत्ति है। द्रव्यस्तव सम्पूर्ण आज्ञा का पालन रूप नहीं है ।। २४ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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