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________________ आचारदिनकर (भाग-२) 39 जैनमुनि जीवन के विधि-विधान झोली के अन्दर डाले गए संघट्टित पात्र भी संघट्टित की तरह ही होते हैं। संघट्टित पात्र होने पर पात्रसहित वस्तु सामने लाकर और रजोहरण एवं मुखवस्त्रिका सहित, संघट्टित हाथ-पैर वाले कृतयोगी को हाथ में जब तक उसे दे, तब तक योगवाही कल्पादि से मुक्त होता है। वहाँ भी बैठकर हाथ में दे, खड़े होकर न दे। खड़े हुए मुनि के हाथ में भी बैठकर दे। इस प्रकार करने से उन सबको असंघट्ट होता है। आधे बैठकर पात्र आदि में ऊपर से देने या लेने में असंस्पर्श होता है, निद्रित अवस्था में एवं विकथा करने पर संस्पर्शित (संघट्टित) पात्र आदि सभी वस्तुएँ असंस्पर्शित (असंघट्टित) मानी जाती है। निम्न सब स्थितियों में असंघट्ट होता है, भूमि पर पड़ी वस्तु को ग्रहण करते समय, अथवा जाते हुए या खड़े हुए मुनि के रजोहरण, मुखवस्त्रिका - दोनों में से एक का शरीर से संस्पर्शन नहीं होता है। इसी प्रकार जाते हुए या खड़े होकर दण्ड (डण्डे) को बाएँ हाथ के अंगूठे एवं तर्जनी के बीच में रखता है, तब भी असंघट्ट होता है तथा जाते हुए या खड़े होकर भुजाओं को दाहिने से बाएँ या बाएँ से दाहिने ले जाता है, तब भी असंघट्ट होता है - यह स्थिर संस्पर्शन की विधि हैं। पूर्व में कहे गए अनुसार नारियल, तुम्बी के पात्रों के पादगर्भ में, अर्थात् नीचे हाथी-दाँत या सींग (श्रृंग) आदि के स्थापक नहीं लगाए। टूटे हुए पात्र को जोड़ने में या तरपनी (तृप्ती) को सांधने में लोहा, तांबा, जस्ता, चाँदी, सोने के तारों या कपड़े आदि का वर्जन करे। यहाँ कुछ आचार्य काँचयुक्त परिधान वाली स्त्री का भी भिक्षा ग्रहण हेतु परिहार करते है। तांबे, लोहे, हाथी-दाँत, जस्ता आदि के पात्र से भी भिक्षा ग्रहण न करे शेष नियम संस्पर्शन (संघट्ट) के समान ही हैं। यह परिमाण की विधि बताई गई है। अब किन कालों में कालग्रहण, अर्थात् स्वाध्याय आदि करे ; उससे सम्बन्धित उचित एवं अनुचित काल का विवेचन किया जा रहा हैं। योगोद्वहन में क्रमशः छ: मास तक नित्य कालग्रहण, अर्थात् समय पर अध्ययन आदि करे इसके पश्चात् अन्य योगोद्वहन में इसकी आवश्यकता नहीं है। गणियोग को छोड़कर आषाढ़ पूर्णिमा से लेकर कार्तिक पूर्णिमा तक निश्चित रूप से योग समाप्त हो जाने चाहिए। दूसरे समय में मेघ, विद्युत आदि की संभावना होने से उस काल में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001694
Book TitleJain Muni Jivan ke Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Religion, & Vidhi
File Size15 MB
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