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________________ पूर्वपीठिका संक्षेप में, श्रमणी - संघ की देखभाल का मुख्य उत्तरदायित्व प्रवर्तिनी पर रहता है। श्रमणी संघ में उसका आदेश अंतिम और सर्वमान्य होता है। 1.15.1.2 महत्तरिका श्रमणी - संघ का यह एक महत्त्वपूर्ण पद था, जो आज भी उसी रूप में कायम है। श्रमणी - संघ की प्रमुखा साध्वी को ‘महत्तरा' कहा जाता है। 66 “महत्तर कहिए कुल विषै बड़ा 167 महत्तरिका साध्वी माँ के समान वात्सल्य भाव से धर्म का उपदेश करने वाली होती है। इसका उपदेश बोधि प्राप्ति कराने वाला माना गया है। 168 श्रमणियाँ अपने दोषों की आलोचना उसी के समक्ष करती थीं। अनेक ग्रन्थों के प्रणेता आचार्य हरिभद्रसूरि की बोधदाता एवं ग्रंथ प्रणयन में जोड़ने वाली, साध्वी याकिनी सर्वत्र 'याकिनी महत्तरा' के नाम से आज भी प्रसिद्ध है। गच्छाचार पइन्ना के अनुसार शीलवती, सुकृत करने वाली कुलीन और गंभीर अन्तःकरण वाली गच्छ में मान्य आर्यिका 'महत्तरा' पद को प्राप्त करती है। 169 संघ-प्रमुखा साध्वी के लिये 'महत्तरा' पद सहेतुक है। उसे 'महत्तमा' नहीं कहा, 'महत्तरा' कहकर उसे सामान्य साधु-साध्वी से ऊँचा दर्जा दिया है तथा आचार्य से अनुशासित होने के कारण 'महत्तमा' नहीं गिना गया। 1.15.1.3 गणिनी साध्वी- समुदाय की प्रमुखा को ही गणिनी शब्द से भी संबोधित किया जाता था। गणिनी के संघीय व्यवस्था में क्या कर्त्तव्य थे, यह स्पष्ट नहीं होता है, किंतु जैसे श्रमण-संघ में ग्यारह अंगों का ज्ञाता गणी कहलाता है, 170 सी प्रकार श्रमणी - संघ में बहुश्रुता साध्वी को गणिनी कहा जाता होगा। आचारांग चूर्णि में 'गणी' का महत्त्व स्थापित करते हुए कहा है कि सामान्य श्रमण, आचार्य या उपाध्याय अध्ययन करते हैं, परंतु जब स्वयं आचार्य को अध्ययन की अपेक्षा तब वे मात्र 'गणी' से ही पढ़ सकते हैं। इससे यह प्रतीत होता है कि 'गणी' अथवा 'गणिनी' बहुश्रुती, संयमी एवं पर्याय ज्येष्ठ होते हैं तथा शिक्षा के महत्वपूर्ण कार्य में अग्रणी होते हैं। संस्कृत में 'गण्' धातु गणना के अर्थ में है, इससे भी गणिनी ' श्रेष्ठ, गणनीया, माननीया' साध्वी ही ध्वनित होती है। मूलाचार में महत्तरिका, प्रधान साध्वी को गणिनी कहा है। 171 कहीं-कहीं गणिनी का पद अभिषेका के सदृश दिखाया गया है जैसे जहाँ प्रायश्चित् की बात आती है, वहाँ गणिनी और अभिषेका को एक समान प्रायश्चित् का पात्र बताया है, प्रवर्तिनी के लिये इनकी अपेक्षा गुरूतर प्रायश्चित् का विधान है। 1 72 किंतु अन्यत्र गणिनी को प्रवर्तिनी के समकक्ष भी वर्णित किया गया है। 73 भाष्य में सर्वत्र प्रवर्तिनी 166. (क) स्थानांग सूत्र 4 / 126, 127; 6/53, 54; 8/95-100 (ख) भगवती सूत्र 3/7, 11/109,110 (ग) ज्ञाता सूत्र 1/8/35;2/1/10 167. त्रिलोकसार 683 टीका । 168. 'मयहरिया में णेहपरा धम्मवक्खाणं करेति तेण मे बोधि लद्धा' - निशीथभाष्य 1684 169. गच्छाचार पइन्ना, गाथा 118 170. 'एकादशांगविद् गणी' - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भा. 2, पृ. 234 171. (क) 'गणिनीं तासां महत्तरिकां प्रधानां' - मूलाचार, समाचाराधिकार, गा. 178 टीका, (ख) 'गणिनी महत्तरिका' वही, गा. 192 टीका 172. गणिनी अभिषेका सा छेदे, प्रवर्तिनी पुनर्मूले तिष्ठतीति । - बृहत्कल्प भाष्य, भा. 3, गाथा 2410 की टीका 173. गणिनी प्रवर्तिनी सा भिक्षु सदृशी मन्तव्या - वही, भाग 6 गाथा 6112 की टीका 37 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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