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________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ में आयंबिल करती थीं। सरदारगढ़ में ये स्वर्गवासिनी हुईं। इनकी कई शिष्याएँ थीं-श्री केरकुंवरजी, श्री नगीनाजी, श्री गेंदकुंवरजी, श्री हगामाजी आदि। श्री केरकुंवरजी की नौ शिष्याएँ हुईं-श्री कंचनकुंवरजी, श्री दाखांजी, श्री सौभाग्यकुंवरजी, श्री सज्जनकुंवरजी, श्री रूपकुंवरजी, श्री प्रेमकुंवरजी, श्री मोहनकुंवरजी, श्री प्रतापकुंवरजी। 6.5.10.8 श्री प्रेमवतीजी (सं. 1996-2057) समन्वय साधिका महासती श्री प्रेमवतीजी का जन्म कोशीथल (मेवाड़) निवासी श्री भूरालालजी पोखरणा की धर्मपत्नी श्रीमती सज्जनकुंवरजी की कुक्षि से संवत् 1983 में हुआ। पूर्व संस्कारों से प्रेरित आपकी बाल्यवय से ही धार्मिक भावना ने अपनी माता एवं मौसी को भी वैराग्य रंग से अनुरंजित कर दिया, फलतः संवत् 1996 माघ शुक्ला प्रतिपदा के दिन कोशीथल में ही आप तीनों आचार्य मोतीलालजी म. सा. से दीक्षा पाठ पढ़कर श्री केरकंवरजी की शिष्या बनीं। आप प्रगतिशील विचारों की, प्रवचन पटु, आशु कवयित्री एवं ओजस्वी साध्वी रत्न थीं। अहिंसा के क्षेत्र में आपका योगदान सराहनीय है, आपके उपदेश से 2500 से ऊपर व्यक्तियों ने मांस-मदिरा का त्याग किया, समय-समय पर हजारों पशु कत्लखाने से मुक्त हुए। आप जिधर भी विचरती थीं, जैन अजैन बड़ी संख्या में उमड़ पड़ते थे। सेवाशील तथा व्यसन विरहित समाज संरचना में आप अंतिम क्षणों तक प्रयत्नशील रहीं। 'राष्ट्रज्योति, राजस्थान सिंहनी' आदि पदों से अलंकृत थीं। आपके व्यक्तित्व को उजागर करने वाला अभिनंदन ग्रंथ आपकी दीक्षा अर्धशताब्दी समारोह पर अर्पित किया गया। संवत् 2057 कोशीथल में आपका स्वर्गवास हुआ।10 6.6 क्रियोद्धारक आचार्य श्री हरजीऋषिजी परम्परा : स्थानकवासी संप्रदाय में लोंकाशाह के पश्चात् जिन आत्मार्थी क्रांतिवीरों ने क्रियोद्धार किया था, उनमें हरजी ऋषिजी भी प्रमुख थे, इनके क्रियोद्धार का समय वि. सं. 1686 के आसपास का है। इनकी विशिष्ट परम्परा 'कोटा संप्रदाय' के नाम से प्रसिद्ध हई। तीसरे आचार्य श्री परसरामजी तक यह परंपरा एक इकाई के रूप में रही. तदनन्तर यह दो शाखाओं में विभक्त हो गई, पहली शाखा के आचार्य श्री लोकमणजी और दूसरी शाखा के श्री खेतसीजी हुए। प्रथम शाखा के छठे आचार्य श्री दौलतरामजी के पश्चात् श्री लालचंदजी से तीसरी शाखा का प्रादुर्भाव हुआ जो पूज्य हुकमीचंदजी महाराज की संप्रदाय के नाम से विख्यात हुई।'' श्रीलालजी तक यह शाखा एकता के सूत्र में आबद्ध रही, तत्पश्चात् श्री हुकमीचंदजी महाराज की यह संप्रदाय भी दो इकाइयों में विभक्त हो गई-पहली इकाई के आचार्य हुए श्री जवाहरलालजी महाराज और दूसरी इकाई के पूज्य श्री मन्नालालजी महाराज। श्री जवाहरलालजी महाराज के पाटानुपाट श्री नानालालजी महाराज के स्वर्गवास के पश्चात् पुनः इसकी एक नई शाखा 'शांत क्रांति संघ' के रूप में उद्भुत हुई। इन सभी शाखाओं को तीन भागों में विभाजित किया है- (क) कोटा संप्रदाय (ख) साधुमार्गी संप्रदाय (ग) दिवाकर संप्रदाय। यद्यपि साध्वियों के विषय में यह निर्णय करना कठिन है कि वे किस शाखा से संबंधित रही हैं तथापि जिसकी वंशावली में हमें जिस साध्वी का उल्लेख मिला, उसे उस शाखा में वर्णित किया है। 410. संयम गरिमा ग्रंथ, प्रधान संपादक - डॅ. राजेन्द्रमुनि 'रत्नेश, प्रथमखंड, पृ. 1-72 411. प्रवर्तक मुनि शुक्लचंद्र, भारत श्रमण संघ गौरवः आचार्य सोहन, पृ. 353 671 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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