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________________ सुबोधिनी टीका । [ १९१ करनेवाला हूं, जवतक उसके ऐसा विकल्पात्मक बोध है तव तक उसके नय पक्ष है । बहुत काल तक अथवा जल्दी ही दैववश वही आत्मा यदि निर्विकल्प होजाय, अर्थात् 'मैं उपासक हूं और मैं ही स्वयं उपास्य हूं, इस उपास्य उपासक विकल्पको दूर कर स्वयं आत्मा निज आत्मामें तन्मय होजाय तो उस समय वह आत्मा स्वात्मानुभवन करने लग जाता है । जो स्वात्मानुभवन है वही स्वात्मानुभूति कहलाती है । भावार्थ - कविवर दौलतरामजीने छहढाला में इसीका आशय लिया है । वे कहते हैं कि 'जहां ध्यान ध्याता ध्येयको न विकल्प वच भेद न जहां आदि' अर्थात् जिस आत्मानुभूतिमें ध्यान क्या है, ध्याता कौन है, ध्येय कौन है यह विकल्प ही नहीं उठता है, और न जिसमें वचनका ही विकल्प है । निश्चय नयमें भी विकल्प है इसी लिये सम्यग्दृष्टि - स्वात्मानुभूतिनिमग्न उसे भी छोड़ देता है, इसीलिये ‘णयपक्ख परिहीणो' अर्थात् सम्यग्दृष्टि दोनों नय पक्षोंसे रहित है ऐसा कहा गया है। जहां विकल्पातीत, वचनातीत आत्माकी निर्विकल्प अवस्था है वही स्वात्मानुभूति विज्ञान है । वह निश्चयनयसे भी बहुत ऊपर है, बहुत सूक्ष्म है, उस अलौकिक आनन्दमें निमग्न महात्माओं द्वारा ही उसका कुछ विवेचन होसक्ता है, उस आनन्दसे बंचित पुरुष उसका यथार्थ स्वरूप नहीं कह सक्ते हैं । जिसने मिश्रीको चख लिया है वही कुछ उसका स्वाद किन्हीं शब्दोंमें कह सक्ता है । जिसने मिश्रीको सुना मात्र है वह विचारा उसका स्वाद क्या बतला सक्ता है, इसी लिये स्वात्माभूतिको गुरूपदेश्य कहा गया है I सारांश- तस्माद्व्यवहार इव प्रकृतो नात्मानुभूतिहेतुः स्यात् । अयमहमस्य स्वामी सदवश्यम्भाविनो विकल्पत्वात् ॥६५३॥ अर्थ - इसलिये व्यवहारनयके समान निश्वयनय भी आत्मानुभूतिका कारण नहीं है। क्योंकि उसमें भी यह आत्मा है, मैं इसका स्वामी हूं, ऐसा सत् पदार्थमें अवश्यंभावी विकल्प उठता ही है। शङ्काकार- ननु केवलमिह निश्चयनयपक्षो यदि विवक्षितो भवति । व्यवहारान्निरपेक्षो भवति तदात्मानुभूतिहेतुः सः ॥ ६५४ ॥ अर्थ -- यदि यहांपर व्यवहार नयसे निरपेक्ष केवल निश्चयनयका पक्ष ही विवक्षित किया जाय तो वह आत्मानुभूतिका कारण होगा ? उत्तर नैवमसंभवदोषायतो न कश्चिन्नयो हि निरपेक्षः । सति च विधौ प्रतिषेधः प्रतिषेधे सति विधेः प्रसिडत्वात् ॥ ३५५॥ पू. १५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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