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________________ अध्याय । ] सुबोधिनी टीका। [११५ सदभाव परिणामो अवति न अनाक आश्रयाभावात् । दीपाभावे हि यथा नवि दृश्यते प्रकाशोन ॥ ३८९ ॥ अर्थ-जिस प्रकार दीपकका अभाव होनेपर उसी समय प्रकाशका भी अभाव हो जाता है, कारण-दीपक प्रकाशका आश्रय है, विना दीपकके प्रकाश किसके आश्रय ठहरे ? उसी प्रकार सत्के अमावमें परिणाम भी अपनी सत्ता नहीं रख सक्ता है, कारण-परिणामका सत् आश्रय है, विना आश्रयके आश्रयी कैसे रह सक्ता है ? अर्थात् नहीं रह सक्ता । भावार्थ:-परिणाम पर्यायका नाम है, पर्याय किसी द्रव्य अथवा गुण में ही हो सक्ती है, जो सत् (भावात्मक) ही नहीं है उसमें पर्यायका होना उसी प्रकार असंभव है जिस प्रकार कि गधेके सींगोंका होना असंभव है । इसलिये सत् और परिणाम दोनोंका एक ही काल है। परिणामाभावेपि च सदिति च नालम्बते हि सत्तान्ताम् । स यथा प्रकाशनाशे प्रदीपनाशोप्यवश्यमध्यक्षात् ॥ ३९० ॥ ___ अर्थ-जिसप्रकार प्रकाशका नाश होनेपर दीपकका नाश भी प्रत्यक्ष दीखता है, अर्थात् जहां प्रकाश नहीं रहता, वहां दीपक भी नहीं रहता है । उसी प्रकार परिणामके अभावमें सत् भी अपनी सत्ताको नहीं अवलम्बन कर सक्ता है । नावाथ-दीपक और प्रकाशका सहभावी अविनाभाव है, जवतक दीपक रहता है तभी तक उसका प्रकाश भी रहता है, और जवतक प्रकाश रहता है तभी तक दीपक भी रहता है, ऐसा नहीं होसक्ता कि प्रकाश न रहे और दीपक रह जाय, प्रकाशाभावमें दीपक कोई पदार्थ नहीं ठहरता । दीपक तेल, बत्ती और शरावेका नाम नहीं है किन्तु प्रकाशमान लौ (ज्योति) का है । दीप प्रकाशके समान ही सत् परिणामको समझना चाहिये । सत् सामान्य है, परिणाम विशेष है, नतो विना सामान्यके विशेष ही होसक्ता है, और न विना विशेषके सामान्य ही होसक्ता है * इसलिये सामान्य विशेषात्मक-सत् परिणाम दोनों समकालभावी हैं और कथञ्चित् अभिन्न हैं । क्षणभेद माननेमें दोषअपि च क्षणभेदः किल भवतु यदीहेष्टसिद्धिरनायासात् । सापि न पतस्तथा सति सतो विनाशोऽसतश्च सर्गः स्यात् ॥३९१॥ __ अर्थ-यदि अनायास इष्ट पदार्थकी सिद्धि होजाय तो सत् और .परिणाम दोनोंका क्षणभेद-कालभेद भी मान लिया जाय, परन्तु कालभेद माननेसे इष्ट सिद्धि तो दूर रहो उल्टी हानि हीती है। दोनोंका कालभेद माननेपर सत्का विनाश और असत्की उत्पत्ति होने लगेगी। क्योंकि जब दोनोंका काल भेद माना जायगा तो जो है वह सर्वथा नष्ट होगा और जो उत्पन्न होगा वह सर्वथा नवीन ही होगा। परन्तु ऐसा नहीं होता, • निर्विशेष हि सामान्यं भवेच्छशविषाणवत् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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