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________________ सूत्र २१-२२-२३ । सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ३१५ ___ अर्थ-ऊपर अशुभ नामकर्मके आस्रवके दो कारण जो बताये हैं, उनसे ठीक विपरीत दो प्रकारकी प्रवृत्ति शुभनामकर्मका आस्रव हुआ करती है । अर्थात् मन वचन कायकी सरलएकसी वृत्ति और अविसंवाद-अन्यथा प्रवृत्ति न करनेसे शुभनामकर्मका आस्रव हुआ करता है । इस प्रकार शुभ और अशुभ नामकर्मके आस्रव बताये । किन्तु नामकर्मकी प्रवृत्तियोंमें तीर्थकरकर्म सबसे उत्कृष्ट और प्रधान है । जिसका कि उदय होनेपर अर्हन्त भगवान् मोक्षमार्गकी देशनामें प्रवृत्त हुआ करते हैं । अतएव उस कर्मकी उत्कृष्टता दिखानेवाले उसके बंधके कारणोंको भी पृथक्पसे बतानेकी आवश्यकता है । इसी लिये आगेके सूत्रद्वारा ग्रन्थकार तीर्थकरकर्मके आस्रवके कारणोंको बताते हैं----- सूत्र--दर्शनविशुद्धिविनयसंपन्नता शीलवतेष्वनतिचारोऽभीक्ष्णं ज्ञानोपयोगसंवेगौ शक्तितस्त्यागतपसी सङ्घमाधुसमाधिवैयावृत्यकरणमर्हदाचार्यबहुश्रुतावचनभक्तिरावश्यकापरिहाणिमार्गप्रभावना भवचनवत्सलवमिति तीर्थकृत्त्वस्य ॥ २३ ॥ ___ भाष्यम्-परमप्रकृष्टा दर्शनविशुद्धिः, विनयसंपन्नता च, शीलव्रतेष्वात्यन्तिको भृशमप्रमादाऽनतिचारः, अभीक्ष्णं ज्ञानोपयोगः संवेगश्च । यथाशक्तितस्त्यागस्तपश्च, संघस्य साधूनां च समाधिवैयावृत्त्यकरणम्, अर्हस्वाचार्येषु बहुश्रुतेषु प्रवचने च परमभावविशुद्धियुक्ता भक्तिः, सामायिकादीनामावश्यकानां भावतोऽनुष्ठानस्यापरिहाणिः, सम्यग्दर्शनादेमोक्षमार्गस्य निहत्य मानं करणोपदेशाभ्यां प्रभावना, अर्हच्छासनानुष्ठायिनां श्रुतधराणां बालवृद्धतपस्विशैक्षग्लानादीनां च सङ्ग्रहोपग्रहानुग्रहकारित्वं प्रवचनवत्सलत्वमिति, एते गुणाः समस्ता व्यस्ता वा तीर्थकरनाम्न आस्रवा भवन्तीति ॥ अर्थ--अत्यन्त प्रकर्ष अवस्थाको प्राप्त हुई दर्शनविशुद्धि-सम्यग्दर्शनकी विशेष शुद्धावस्था, विनयगुणकी पूर्णता, शील और व्रतोंमें अतीचार रहित प्रवृत्ति-पुनः पुनः और अतिशयिताके साथ इस तरहसे प्रवर्तन करना कि, जिसमें प्रमादका सम्बन्ध न पाया जाय । निरन्तर ज्ञानोपयोगका रखना, और संवेगगुणको धारण करना, संसार और उसके कारणोंसे सदा भयभीत रहना, यथाशक्ति --अपनी सामर्थ्यके अनुसार-सामर्थ्यसे • न कम न ज्यादह त्याग और तप करना-दान देना और तपश्चरण करना, संधे और साधओं की समाधि तथा वैयावत्य करना, अरिहंत आचार्य बहुश्रुत और प्रवचनके विषयमें उत्कृष्ट भावोंकी विशुद्धिसे युक्त भक्तिका होना, सामायिक आदि आवश्यकोंका कभी भी परित्याग १-" मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम् ॥” २-चातुर्वण्य समूहको संघ कहते हैं । ३-मुनियोंके तपकी रक्षा करनेको साधु-समाधि कहते हैं। ४--गुगी पुरुषों के ऊपर दुःख या विपत्ति आजानेपर उसकी व्यावृत्ति करना, वैयावृत्य नामका गुण है । क्योंकि व्यावृतेर्भावः वैयावृत्त्यम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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