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________________ १७४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ तृतीयोऽध्यायः न कदाचिदस्मात्परतो जन्मतः संहरणतो वा चारणविद्याधरद्विप्राप्ता अपि मनुष्या भूतपूर्वा भवन्ति भविष्यन्ति च अन्यत्र समुद्घातोपपाताभ्याम् । अतएव च मानुषोत्तर इत्युच्यते ॥ तदेवमर्वाङ्मानुषोत्तरस्यार्धतृतीया द्वीपाः समुद्रद्रयं पञ्चमन्दराः पञ्चत्रिंशत्क्षेत्राणि त्रिंशद्वर्षधर पर्वताः पञ्च देवकुरवः पञ्चोत्तराः कुरवः शतं षष्यधिकं चक्रवर्ति विजयानां द्वेशते पञ्चपञ्चाशदधिके जनपदानामन्तरद्वीपाः षट्पञ्चाशदिति ॥ अर्थ - इष्वाकार पर्वतों का तथा उनके साथ साथ मेरु आदि पर्वतोंका संख्या विषयक जो नियम धातकीखण्डके विषय में ऊपर बताया है, वही नियम पुष्करार्धके विषय में भी समझना चाहिये । 1 भावार्थ - घातकीखण्डकी और पुष्करार्धकी रचना समान है । धातकीखंडके ही समान पुष्करार्ध में भी दो इष्वाकारपर्वत हैं, जोकि दक्षिणोत्तर लम्बे और कालोदधि तथा पुष्करवर समुद्रके जलका स्पर्श करनेवाले तथा पाँच सौ योजन ऊँचे हैं । इन्हीं के निमित्तसे पुष्करार्ध के भी दो भाग हो गये हैं- पूर्व पुष्करार्व और पश्चिम पुष्करार्ध । घातकीखंड के समान ही इनमें भी रचना है, अर्थात् यहाँपर भी जम्बूद्वीपकी अपेक्षा क्षेत्रोंकी और पर्वतोंकी संख्या दूनी समझनी चाहिये । जम्बूद्वीपमें एक भरतक्षेत्र है, तो पुष्करार्धमें दो हैं - एक पूर्व पुष्करार्धमें और दूसरा पश्चिम पुष्करार्धमें । इसी तरह अन्य क्षेत्र तथा पर्वतोंका प्रमाण भी समझ लेना चाहिये | घातकीखण्ड के समान यहाँपर भी दो मेरु हैं, जोकि चौरासी चौरासी हजार योजन ऊँचे हैं, वंशधर पर्वत भी चार चार सौ योजन ऊँचे हैं । यहाँका सभी संख्याविषयक नियम घातकीखण्ड के समान है' । कालोदधिसमुद्रको चारों तरफ से घेरे हुए पुष्करवर द्वीप है, जिसका कि विष्कम्भ १६ लाख योजना है । इस द्वपिके ठीक मध्य भागमें मानुषोत्तर नामका एक पर्वत है, जोकि कंकणके समान गोल चारों तरफको सम्पूर्ण दिशाओं में पड़ा हुआ है । जिस प्रकार बड़े बड़े नगरोंको परकोटा घेरे रहता है, उसी प्रकार मानुषोत्तरपर्वत मनुष्यक्षेत्रको घेर रखा है । यह सुवर्णमय सत्रह सौ इक्कीस योजन ऊँचा और भभाग में चार सौ तीस योजन एक कोस प्रविष्ट है । पृथ्वीपर इसका विस्तार एक हजार वाईस योजन और मध्य में सात सौ तेईस योजन तथा ऊपर चलकर चार सौ चौसि योजन है । जिस प्रकार धान्यकी राशिको ठीक बीच में से काट देनेपर उसका आकार एक तरफ से सपाट दीवाल के समान और दूसरी तरफ से आधी नारङ्गीके समान ढलवाँ होता है, उसी प्रकार मानुषोत्तरपर्वतका आकार समझना चाहिये । मनुष्यक्षेत्र के भीतरकी तरफका आकार सपाट दीवाल के समान और बाहर की तरफका आकार ढलवाँ है । इसके निमित्तसे पुष्करवर द्वीपके दो भाग हो गये हैं । I १ – पुष्करार्ध की सूची ४५ लाख योजनकी है । अतएव क्षेत्रादिकोंके आयामादिका प्रमाण धातकीखंडसे कई गुणा अधिक है । विवक्षित द्वीप या समुद्र के एक किनारेसे दूसरे किनारे तक के प्रमाणको सूची कहते हैं ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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