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________________ १२२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ द्वितीयोऽध्यायः शरीरको असावद्य कहते हैं । इसके सिवाय यह शरीर अव्याघाती होता है । इससे किसी भी पदार्थका व्याघात-विनाश नहीं होता, और न किसी अन्य पदार्थके द्वारा इसका ही व्याघात हो सकता है । यह शरीर चौदह पूर्वके धारण करनेवाले मुनियोंके ही हुआ करता है । जिनकी पहले रचना हुई है, उनको पूर्व कहते हैं । उनके उत्पादपूर्व आदि चौदह भेद हैं । जो धारणाज्ञानके द्वारा इन चौदह पूर्वोका आलम्बन लिया करते हैं, उनको चतुर्दश पूर्वघर कहते हैं । इसके दो भेद हैं- एक भिन्नाक्षर दूसरा अभिन्नाक्षर । भिन्नाक्षरको ही श्रुतकेवली कहते हैं । इनके श्रुतज्ञानमें संशय नहीं हुआ करता, और इसी लिये इनको कोई प्रश्न भी उत्पन्न नहीं होता, तथा इसी लिये - आलम्बनके न रहनेसे इनके आहारकशरीरका निर्वर्तन भी नहीं होता । जो अभिन्नाक्षर हैं, उन्हींके संशय और प्रश्नका आलम्बन पाकर आहारकशरीर निर्वृत्त हुआ करता है । क्योंकि उनका श्रुतज्ञान परिपूर्ण नहीं हुआ करती । 1 यह आहारकशरीर लब्धिप्रत्यय ही हुआ करता है । तपोविशेषता आदि पूर्वोक्त कारणोंसे ही उत्पन्न हुआ करता है । श्रुतज्ञानके किसी भी अत्यंत सूक्ष्म और अतिगहन विषयमें जब उस पूर्वधरको किसी भी प्रकारका संदेह होता है, तब उस विषयका निश्चय करने के लिये वह भगवान् अरहंतदेवके पादमूलमें जाना चाहता है । किंतु उस समय वे भगवान् यदि उस क्षेत्र में उपस्थित न हों, किसी ऐसे अन्य विदेहादिक क्षेत्रमें हों, कि जहाँपर वह पूर्व - घर औदारिकशरीर के द्वारा पहुँच नहीं सकता, तो अपनी अशक्यता के कारण वह इस लब्धिप्रत्ययशरीरको ही उज्जीवित किया करता है, और जिन्होंने लोक अलोकका प्रत्यक्ष अवलोकन कर लिया है, ऐसे भगवान् अरहंतदेव के निकट उसी शरीरके द्वारा जाकर और उनका दर्शन अभिवादन करके प्रश्न करता है, तथा पूछकर संशय की निवृत्ति हो जानेपर पापपंकका पराभव कर पुनः उसी स्थानपर लौटकर आ जाता है, जहाँसे कि उस शरीरको तयार करके निकला था । वापिस आकर औदारिकशरीर में ही वह प्रविष्ट हो जाता है । निकलनेसे लेकर औदारिकशरीरमें प्रवेश करनेतक आहारकशरीरको अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल लगता है । इस शरीर की जघन्य अवगाहना एक हाथसे कुछ कम और उत्कृष्ट अवगाहना पूर्ण एक हाथ प्रमाण हुआ करती है । 1 आहारकके अनंतर तैजसशरीरका पाठ है । यह भी लब्धिप्रत्यय हुआ करता है इसका विशेष वर्णन पहले किया जा चुका है। जो तेजका विकार - अवस्था विशेषरूप है, उसको १——-व्याघातका अभिप्राय रोकना या रुकना है, आहारकशरीर सूक्ष्म होनेसे न किसीको रोकता न किसी से रुकता है । किंतु टीकाकारने व्याघातका अर्थ विनाश ही किया है। २-“ अतएव केचिदपरितुष्यन्तः सूत्रमाचार्यकृतन्यासादधिकमधीयते " अकृत्स्नश्रुतस्यर्द्धिमतः " इति । 25 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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